Book Title: Jain Siddhant Digdarshan
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Bhogilal Dagdusha Jain

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Page 37
________________ 36 (जैनसिद्धान्तविशाल अवलोकन की अवगणना करना क्या कोई सहृदय पसन्द करेगा ? स्याद्वाद की अवगणना करना सचमुच इसी विशाल अवलोकन की अवगणना करना है / इस बात को, गुजरात के सुप्रसिद्ध विद्वान आनन्दशंकर बापुभाई ध्रुव यदा तदा अपने व्याख्यानों में बड़ी स्पष्टता से समझाया करते हैं। उन्होंने अपने एक व्याख्यान में, महर्षि श्री शंकराचार्यजी के स्याद्वादविरुद्ध आक्षेप के सम्बन्ध में यह स्पष्ट कहा था कि, वह उस सिद्धान्त के यथार्थ और वास्तविक रहस्य से संगति नहीं रखता / काशी के महामहोपाध्याय श्री राममिश्रशास्त्री ने अपने एक व्याख्यान में, स्याद्वाद को एक महान 'किला ' की उपमा दे कर उसकी महान उपयोगिता का समर्थन किया था / गुड़ कफकारी है और सुंठ पित्तावहः इसी तरह एकांगी दृष्टि भी दूषित है / परन्तु गुड़ और सुंठ का सम्मिश्रण किया जाय, तब उसमें कोई दोष नहीं रहता; वही बात अनेांग-दृष्टि के लिए भी है / अस्तु / अब अहिंसा की तरफ जरा दृष्टिपात कर लूँ / अहिंसा यह तो कोई भी तटस्थ विद्वान स्वीकार करेगा कि अहिंसा तत्व का विकास सबसे अधिक जैनदर्शन में हुआ है। जैनदर्शन की अहिंसा मनुष्य, पशु-पक्षी और कीड़े-मकोड़े तक ही सीमित नहीं है, परन्तु उसका क्षेत्र-विस्तार और अधिक आगे बढ़ा हुआ है / जैन तत्त्वज्ञान इतना आगे बढ़ा हुआ है कि वह पृथ्वी, जल और वनस्पति को भी, एवं अग्नि तथा वायु को भी जीवमय मानता है / तमाम आकाश सुसूक्ष्म जीवों से भरा है ऐसा जैनदर्शन का मन्तव्य है,

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