________________ A -- AAR 33 दिग्दर्शन ] . एक शुद्ध आत्म-तत्व में निरत होना यही उसका आदर्श है / इस महान और उच्च आदर्श की दृष्टि से वह कितना उपयुक्त है यह स्पष्ट ही है / वैदिक दार्शनिकों ने फरमाया है कि-" सदस यामनिर्वचनीयं जगत् "-जगत न केवल सद्रूप है, और न केवल असद्प है, किन्तु सदसद्-उभयरूप है, अत एव वह अनिर्वचनीय है / यह अनेकान्तदर्शन नहीं तो और क्या है ? स्व-भाव से सत् और पर-भाव से असत् , अथवा व्यक्तिरूप से असत् और शक्तिरूप से सत् किसको नहीं मानना पड़ता ? मूल द्रव्य मृत्तिका के कई पात्र बनते हैं। एक पात्र फूट जाता है और उसमें से दूसरा बनता है, तब भी मूल द्रव्य ( मृत्तिका ) ज्यों का त्यों ही है। यह क्या बतलाता है ? यही कि मूल द्रव्य (मृत्तिका) की अपेक्षा से नित्यता और [ नाना आकार के पात्र फूटते हैं और बनते हैं-इस ] आकारपरिणाम-वैविध्य की अपेक्षा अनित्यता / अतः इस नित्यानित्यवाद को कौन मंजूर नहीं करेगा ? क्या नैयायिकों और वैशेषिकों ने परमाणुरूप पृथ्वी को नित्य और कार्यरूप पृथ्वी को अनित्य नहीं माना है ? क्या यह स्याद्वाद का आश्रयण नहीं ? आधुनिक वैज्ञानिकों का भी यही मत है कि-" मूलप्रकृत्या यदिहास्ति नित्यं तदेव पर्यायवशादनित्यम्"। इस तरह एकात्मवाद--नानात्मवाद, कर्तृत्ववाद-अकर्तृत्ववाद, ईश्वरसम्बन्धी साकारवाद–निराकारवाद, आत्मसम्बन्धी देहपरिमाणवादवैभववाद, और क्षणिकवाद वगैरह जितने दार्शनिक चर्चा के धाम हैं सबका समन्वय यह स्याद्वाद-दर्शन कर देगा, चाहिए सिर्फ मिलन की भावना। x लेखक की " अनेकान्त-विभूति' में का श्लोकार्ध / * देखो ! इसी लेखक की विरचित 'अनेकान्त-विभूति' (द्वात्रिंशिका)।