Book Title: Jain Siddhant Digdarshan
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Bhogilal Dagdusha Jain

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Page 32
________________ दिग्दर्शन ] स्याद्वाद स्माद्वाद का दूसरा नाम अनेकान्तबाद है। अनेकान्त के अन्दर जो ' अन्त ' शब्द पडा है उसका अर्थ है-दृष्टि। अनेकान्त यानी अनेक-दृष्टि, अर्थात अनेक विषयक दृष्टि / वस्तु का एकांगी दृष्टि से नहीं, किन्तु अनेकांगी दृष्टि से आलोकन करना, निरूपण करना यह अनेकान्तवाद है / यही भाव ' स्याद्वाद ' के अन्तर्गत ' स्यात् / ( अव्यय ) पद का है। वस्तु के एक अंग या अंश का विचार अपर्याप्त होगा। उसके अनेक अंगी पर दृष्टि डाली जाय, तभी उसका बराबर बोध होगा। अमुक विषय के लिए एक मनुष जो कह रहा है, उससे भिन्न, दूसरा मनुष्य कह रहा है, ऐसी हालत में उन दोनों के दृष्टि-बिन्दुओं को समझने की जरूरत है / दोनों के दृष्टि-बिन्दु भिन्न होने पर भी संगत हो सकते हैं या नहीं ? और तब दोनों के कथन भिन्न होने पर भी समन्वित हो सकते हैं या नहीं ? यह सोचने की जरूरत है। इस तरह की जो परामर्श-कला, इसीका नाम है स्यावाद / एक ने दृध को राबियत के लिए हानिकारक बतलाया और दूसरे ने उसको लाभदायक कहः / अब इन दोनों के विन्दुओं को न समझा जाय, तो ये दाना एक मरे को अपने अपने कथन से विरूद्धवादी मानेंगे / और फिर इसके परिणामस्वरूप, उन दोनों में विरोध बढ़ेगा / परन्तु जब एक-दूसरे की दृष्टि को समझ लिया जाय कि दूध को हानिकारक बतानेवाला शरीर की किस रुग्ण अवस्था के लिए उसको हानिकारक बतलाता है, और लाभकारक कहनेवाला किस दशा में लाभकारक कहता है, तो उन दो कथनों की बर संगति हो जायगी। एक चीज एक

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