Book Title: Jain Siddhant Digdarshan
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Bhogilal Dagdusha Jain

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Page 17
________________ maa 16 [ जैनसिद्धान्तकट्टर धर्मान्ध व्यक्ति ने द्वेषपूर्ण वृत्ति से इस " स्फुलिंग-कण " को फैंका होगा / फिर असहिष्णु वातावरण के वेग से उसका फैलना शक्य ही था / परन्तु आज संसार में ऐसे आवेशमय आक्षेपो के प्रति लोगो की कितनी अरुचि बढ रही है यह आप देख सकते हैं। अस्तु / कर्म के योग-वियोग और जीव पर उनका प्रभाव मोक्ष-मीमांसा में कां के योग-वियोग का विचार अत्यन्त अपेक्षित है / आत्मा का कर्म-योग यदि सादि माना जाय तो कर्म-याग के पहले आत्मा अकर्मक [निरावरण] सिद्ध होगा, और अत एव उसे ( कर्मयोग के पहले ) पूर्णोज्ज्वल, पूर्ण शुद्ध मानना पड़ेगा / परन्तु त: यह आपत्ति आयगी कि पूर्णशुद्ध आत्मा को भी पीछे से कर्म लगे और इससे वह अशुद्ध हुआ, और तब से उसका भवभ्रमण चला। यह आपत्ति ऐसी है कि आत्मा के मोक्ष को अशक्य बना देती है-इससे मोक्ष के सिद्धान्त को जलाञ्जलि देनी पडेगी। क्योंकि पहले जो स्वतः सिद्ध मोक्ष (पूर्ण शुद्ध स्थिति) था, वह स्थिर न रह सका, तो भविष्य में प्रयत्नसाध्य जो भोक्ष होगा, वह भी क्यों स्थिर रह सकेगा ? इसलिए प्राचीन भारतीय दर्शनकारों ने जीव और कर्म के संयोग को अनादि मानाहै। और अत एव जीव का संसार-भ्रमण भी अनादि ही सिद्ध होता है। ईश्वर के अवतार लेने की बात, जैसे कि अन्यत्र पाई जाती है, जैनदर्शन को सम्मत नहीं है। यह भी जगत्कर्तृत्व-चर्चा का ही विषय है / और उस पर अवलोकन हो चुका है / मुक्त के भवावतार के विरुद्ध में जैनदर्शन का यह कहना है कि:--

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