Book Title: Jain Siddhant Digdarshan
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Bhogilal Dagdusha Jain

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Page 19
________________ 18 - [जैनसिद्धान्तजैसे, रसराज से सुवर्ण बनी हुई धातु पुनः पूर्व स्थिति में नहीं आती, वैसे, पूर्ण योगी परम आत्मा, जो समग्र कर्म-बन्धों से मुक्त हुआ है, पुनः कर्मबद्ध नहीं होता। ____ शरीर-धारण कर्मसम्भूत है, और पूर्णशुद्ध आत्मा को, जो कि पूर्ण अकर्मक है, वह (कर्म) नहीं है, तब उसका शरीर-धारण और भवावतरण कैसे हो सकता है ? मोक्ष का अर्थ ही Final emancipation है / ऐसा मोक्ष हुआ, फिर पुनर्बन्धन कैसा ? ___ जैनदर्शन जीवसम्बद्ध अनन्त कर्मों को आठ विभागों में विभक्त करता है:-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय। इन कर्मों के ये नाम ही बता देते हैं कि ये जीव पर क्या परिणाम लाते हैं ? ज्ञानावरण का काम ज्ञान को, जो आत्मा का मूल स्वरूप और मुख्य गुण है, आवृत करना है / दर्शनावरण दर्शन [Perception ] को आच्छादित करता है / वेदनीय का काम सुख-दुःख-सम्पादन कराना है। मोहनीय मोहसर्जक है। यह सची तत्व-प्रतीति नहीं होने देता और इसीके बल से जीव क्रोध, लोभ, मद, माया, राग, द्वेष ( Passions ) आदि दोषों का शिकार बना हुआ है और बनता है / आयुष्य आयुष्य का नियामक है / नाम शारीरिक संस्था का नियोजक है / गोत्र गोत्र-प्राप्ति का प्रयोजक है। और अन्तराय विघ्न-विधायक है। केवलज्ञान और जीवन्मुक्ति इन आठ कर्मों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार 'घाती ' कर्म कहलाते हैं / 'घाती ' नाम इस

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