Book Title: Jain Siddhant Digdarshan
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Bhogilal Dagdusha Jain

View full book text
Previous | Next

Page 20
________________ दिग्दशन ] लिए दिया गया है कि ये आत्मा के मूल गुण ज्ञान, पावित्र्य, वीर्य आदि का हनन [ Olhscuring ] करनेवाले हैं। आत्मा के वास्तविक आवरणभृत कम ये ही हैं। ये ही उसके पातक और दुर्गतिकारक है / ये ही उसके उग्र भयंकर बन्धन हैं। भवभ्रमण इन्हीं पर आश्रित है। इन्हीं कर्मों की बदौलत जीव अज्ञान, अपवित्र, मृढ और सन्तत रहता है। यही वस्तुतः मंसार है / आध्यात्मिक साधना का विकास जब परिपूर्ण स्थिति को प्राप्त होता है तब इनका [ चारा ' घाती ' कर्मी का ] एक साथ समूल उन्मूलन होता है और तत्क्षणात पूर्ण शुद्ध आत्मा का निज स्वरूप ' केवलज्ञान ' [ (ommiscience ] प्रकट होता है, और साथ ही अनन्त वीर्य ( Infinite power ) भी / इस प्रकार केवलज्ञान को प्राप्त आत्मा केवलज्ञानी या केवली कहलाता है। वह शरीरधारी है तब तक साकार, जीवन्मुक्त परमात्मा है। आयुष्यकमस्थापित शरीरसम्बन्ध जबतक उसको रहता है, तबतक वह जगत् को मंगलमय धर्म-सन्देश सुनाता है। तीर्थकर और भगवान महावीर ऐसे केवलज्ञानियों में एक स्नास वर्ग * तीर्थंकर ' का है, जो 'तीर्थ ' [धर्म-शासन ] की योग्य पद्धतिसम्पन्न व्यवस्था करते हैं, जिसके अनुयायिओं की-साधु ( Monki ), साध्वी ( Nuns ), श्रावक ( Lasmen) और श्राविका ( Lay women )-ऐसी वर्ग-व्यवस्था की जाती है, जो चतुर्विध या चतुर्वर्ण संव-व्यवस्था कही जाती है। इन्हीं ( तोथकर ) के मुख्य शिष्य, जो 'गणधर ' कहलाते हैं, इसकी वाणी के आधार पर शास्त्रप्रणयन करते हैं, जो बारह अंगों में होने से ' द्वादशांगी ' नाम से कहे

Loading...

Page Navigation
1 ... 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50