Book Title: Jain Siddhant Digdarshan
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Bhogilal Dagdusha Jain

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Page 15
________________ 14 : जैतमिद्धान्त" नाऽऽदत्ते कस्यचित् पापं न चैवं सुकृतं विभुः / अज्ञानेनाऽऽवृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः // 15 // " ( भगवदगीता, पंचम अध्याय ) 'गीता ' के ये श्लोक भी उपयुक्त होंगे। परन्तु इससे ईश्वर-भक्ति अनुपयोगी सिद्ध नहीं होती / ईश्वर परमात्मा हमारे जीवनविकास के लिए परम आदर्शरूप है / महान् गुणसम्पन्न व्यक्ति का सत्संग चारित्र-सुधार में उपयोगी होता है, तो पूर्ण पावित्र्यरूप परमात्मा का चिन्तन-म्मरणरूप सामीप्य जीवनविकास में क्यों सहायभूत न होगा ? परम पवित्र परमात्मा के गुणों का चिन्तन ही उसका सच्चा पूजन है / चिन्तक इस चिन्तन-प्रवाह के बल से अपने मनोमालिन्य को धोने में और अपने जीवन को पवित्र गुणों से विभूषित बनाने में समर्थ होता है। महान आत्मा के महान गुणों का चिन्तन चिन्तक के हृदय पर बड़ा असर डालता है और इसी आकर्षण से भावुक चिन्तक गुणों तरफ आकृष्ट होता है / ईश्वरोपास्ति. इस तरह, गुणों की तरफ यदि ले चले, तो यह क्या उसकी उपयोगिता कम है ? आस्तिक-नास्तिक आस्तिक-नास्तिक शब्दों का कैसा अर्थ करना यह अपनी अपनी मनोदशा पर अवलंबित रहा है / और आज भी उनके उपयोग में कोई नियन्त्रण नहीं है / बड़ी इच्छन्दता से जहाँ तहा वे फैके जाते हैं / किन्तु सामान्यतया शामा, समदाय और व्यवहार तो आत्मा, पुण्य- पाप, पुनर्जन्म, मोक्ष और ईश्वर इन तत्वों का जो

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