Book Title: Jain Siddhant Digdarshan
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Bhogilal Dagdusha Jain

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Page 14
________________ दिग्दर्शन ] : 13 पूर्णोज्ज्वलचिदानन्दवीयम्यता के सिवाय और कोई तत्त्व ईश्वर के ईश्वरन्थ में नहीं है। ये दोनों समव्याप्तिक हैं, अर्थात् यत्र यत्र मोक्षस्तत्र तत्र ईश्वरत्वम्, एवं पत्र पत्र ईश्वरत्वं तत्र तत्र सोक्षः / जैन दर्शन का शुद्ध स्पष्ट मन्तव्य है कि प्राणी स्वयं ही अपने सुख-दुःख का नया है। अपनी कृति के अनुसार वह अपने को सुखी या दुःखी बनाता है ! जैसा उसका आचरण होगा वैसा नतीजा वह पायगा / ईश्वर का रक्त-द्विष्ट होना मानना और वह अनुरक्त हो कर चमत्कार दिखलावे, एवं अपने भक्त का उद्धार करने आवे; और दृमरे पर नाराज लोका शाप दे और उसे कष्ट में डाले--ऐसी बातें जैनदर्शन के सिद्धान्त से बिल्कुल प्रतिकूल हैं / जैनधर्म के शिक्षण में जगत को साश्रयी बनने का उपदेश है / वह प्राणी को अपने पैर पर खड़ा रहने की शिक्षा देता है। उसकी यह स्पष्ट घोषणा है कि अपनी मुगति या दुगति, अपही उमति या अगाति अपने ही पर निर्भर है। ईश्वर ऐया नहीं है, जो प्राणी को उठा कर नरक में डाल दे अथवा स्वर्ग में बिठा दे ! जब हम सर कम करेंगे, तो हमारे वे कर्म ही हमें स्वर्ग को ले जायेंगे, और हमारे का बुरे होंगे, तो उन्हीं से हमारा ना होगा। फिर इसमें-- pod will take you to the kingilom of heaven, or lle will send you to hell, इस प्रकार ईश्वर को बीच में लाना न युक्त ही है और न उसका तासिक महत्व ही इसे सुरक्षित रह सकता है। इस विषय में" न कतत्व न कर्माणि लोकम्य जति प्रभुः। न कर्मजलमयोग स्वभावस्तु प्रवर्तते // 14 // "

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