Book Title: Jain Siddhant Digdarshan
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Bhogilal Dagdusha Jain

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Page 13
________________ 12 (जैनसिद्धान्तसिद्ध, बुद्ध, मुक्त ) लाइट में लाइट की तरह परस्पर पूर्ण रूप से मिले हुए हैं / अत एक, इस दृष्टि से उनका 'एक' रूप से व्यवहार किया जाय तो इसमें जैन दर्शन को आपत्ति नहीं है / और इस रीति से वह " एक ईश्वर " के प्रवाद का समन्वय भी कर सकता है / ईश्वर का लक्षण महर्षि पतञ्जलि ने अपने योगसूत्र में यह बतलाया है कि" क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरासृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः" [प्रथम पाद का 24 वा मूत्र ] अर्थात्-क्लेश, कर्म, विपाक और वासना से विरहित ऐसा विशिष्ट आत्मा ईश्वर है। ईश्वर के इस लक्षण में जगत्कर्तृत्व का समावेश नहीं है / और साम्प्रदायिक मन्तव्य को एक तरफ रख कर यदि इस सूत्र को देखा जाय तो यह ईश्वर के स्वरूपदर्शक लक्षण पर बहुत योग्य प्रकाश डालता है / जैन दर्शा भी यही कहता है कि-परिक्षीणसकलकर्मा ईश्वरः / इसमें सकल कर्मा के अन्दर उक्तसूत्रनिर्दिष्ट ‘छलेश' आदि सब समाविष्ट हैं, जिनका परिपूर्ण क्षय जिसने किया है वह परम आत्मा ईश्वर है / जैन महर्षि उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र में मोक्ष का लक्षण है-'कृन्स्नकर्मक्षयो मोक्षः / ' पूर्णोज्ज्वल चिदानन्दवीर्यमय स्थिति इसीके ( कृत्स्नकर्मक्षय के ) परिणामस्वरूप है, इसलिए उसे भी मोक्ष के लक्षणरूप में बताया जा सकता है / मोक्ष का यह लक्षण और ईश्वर का उक्त लक्षण एक ही है / वस्तुतः जैन दर्शन इन दोनों ( मोक्ष और ईश्वर) को धर्म-धर्मी बतलाता है / मोक्ष धर्म है और ईश्वर उसका धर्मी / मोक्ष ही ईश्वर का ईश्वरत्व है / मोक्ष [ सर्वावरणविलयाविर्भूत

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