Book Title: Jain Siddhant Digdarshan
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Bhogilal Dagdusha Jain

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Page 10
________________ maaaaaara maraप्रम दिग्दशन ] कर्म की सजा करे यह उसकी असंगत चेष्टा न होगी ? उच्च चारित्रशाली सत्पुरुष के पवित्र सत्संग से दुष्ट मनुष्य भी सुधर जाता है ऐसे उदाहरण हमारी दृष्टि के सामने मौजूद हैं, तो ईश्वर, जो पूर्ण पवित्र और पूर्ण उज्ज्वल है, दुराधरणी जीवों को सुधार ही क्यों नहीं देता ? ताकि कोई प्राणी बुरा कर्म ही न करे / सुशिक्षित और सच्चरित्रशाली माँयाप अपने बालबच्चों में अच्छी भावना और अच्छा संस्कार डाल सकते हैं, तो पूर्ण पवित्र ईश्वर प्राणियों में अच्छी बुद्धि क्या नहीं भर दे सकता ? ईश्वर की सृष्टि में दुर्बुद्धि का वातावरण ही क्यों होना ? उसको सर्वत्र सद्बुद्धि का प्रकाश ही फैला देना चाहिए / फिर क्यों कोई पाप करने लगेगा ? और सोचिए, उस हालत में ईश्वर की सृष्टि कैसी रम्य होगी ! वैदिक दशनी में भी कई ऐसे हैं जिन्हें ईश्वर का जगत्कर्तत्व स्वीकृत नहीं है / उहिरनाथ, देखिए वाचस्पतिमिश्रविरचित 'सांख्यतत्वकोमुदी' का 57 वी कारिका पर का उल्लेखः__ "क्षावितः प्रवृत्तः स्वार्थकारुण्याभ्यां व्याप्तत्वात् / तं च जनारद व्यापर्तमान अंसापत्भवृत्तिपूर्वकत्वमपि व्यावर्तवतः। नत्यवतमालक्षितस्य भगवतो जगत् सजतः शिलन्धभिलषितं भवति। नापि कारुण्यादस्य समें प्रवृत्तिः। प्राक सति जीवानामिन्द्रिय-शरीरविषयानुत्पत्तौ दुःखामान कस्य प्रहाणेच्छा कारुण्यम् ? सगोत्तरकालं दु:विनोऽवलोक्य कारज्या धुपगमे दुरुत्तरमितरेतरामपत्य दूषण / कारुण्येन हि स्ष्टिः, सृष्ट्या च कारुण्यमिति / जपि च करणया प्रेरित ईश्वरः

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