Book Title: Jain Siddhant Digdarshan Author(s): Nyayavijay Publisher: Bhogilal Dagdusha Jain View full book textPage 8
________________ दिग्दर्शन ] . से मुक्त होना है-Final emancipation or beatitude of the soul from all the Karmic forces. इस तरह जब आत्मा का मोक्ष होता है, तब उसका अपने मूल स्वरूप में पूर्णतया प्रकट होना स्वाभाविक है / यही परमात्मपद है, यही ईश्वरत्व है और यही पारमेश्वरी स्थिति है। ईश्वर और जगत्कर्तृत्व--मीमांसा जैन धर्म की दृष्टि में, जो जो आत्मा इस ( मोक्ष ) स्थिति को पहुँचे हैं वे सब ईश्वर हैं / इनसे अतिरिक्त कोई खास एक ईश्वर है यह बात जैनदर्शन को सम्मत नहीं है। वह इस बात को नहीं स्वीकार करता कि कोई एक सृष्टिकर्ता ईश्वर है / जैन धर्म के दार्शनिक ग्रन्थों में इस बात पर बड़ा पर्यालोचन किया गया है और अन्ततः इस मन्तव्य को अघटित ठहराया है / उसका कहना है कि दुन्यवी कलाकार मनुष्य भी, जो कि बहुत अल्पज्ञ, बहुत असमर्थ और बहुत अपूर्ण है, अपनी कला को, अपनी कारीगरी को, बन सके वहाँ तक सौन्दर्थपूर्ण बनाने की कोशिश करता है; तो ईश्वर, जो कि सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान माना गया है, उसकी सृष्टि-कला कितनी सुन्दर होनी चाहिए ! ऐसी दुःखपूर्ण और बेहुदा सृष्टि यदि ईश्वर का सर्जन माना जाय तो वह सृष्टि-कला का प्रशंसनीय कलाकार नहीं समझा जायगा। जरा देखिए कि, संसार में दुःख, शोक, सन्ताप, मद, ईर्ष्या, अहंकार, क्रोध, काम, दम्भ, तृष्णा, वैर वगैरह कितने भरे पड़े हैं ? क्या ऐसी ही सृष्टि ईश्वर के कलाकारित्व का नमूना होगी? यह कहा जाय कि प्राणी की दुःखी हालत उसके कर्म का फल है, तो इस पर यह प्रश्न होगा कि वैसा कर्म जीव से कौन करवाता है ? यदि जीव स्वयं ऐसा कर्म करता है और उसका फल भोगता है,Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50