Book Title: Jain Siddhant Digdarshan
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Bhogilal Dagdusha Jain

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Page 7
________________ -- 6 [जैनसिद्धान्त- यह तो एक उदाहरण मात्र है / इस तरह कर्मपरिणामदर्शक घटनाएँ वैदिक साहित्य में भी वर्णित हैं, और जैन धर्म के आगमशास्त्रों का तो कहना ही क्या ? उनके अन्दर तो ऐसी घटनाओं का प्राचुर्य बहुत ही फैला हुआ है / खुद भगवान महावीर का चरित्र कार्मिक परिणामों के विचित्र चित्रों का भांडागार है / नौ तत्त्वों में एक अजीव सिवाय बाकी सब तत्व जीव की अवस्थाएँ हैं / पुण्य-पाप जीवसंसृष्ट कर्म हैं / ' आस्रव ', जीव का वह व्यापार है जिससे कर्मों का उसके प्रति आकर्षण होता हैजिससे कर्मों का उससे सम्बन्ध होता है / ' संवर', जीव का वह प्रयत्न है जिससे कर्म का आकर्षण-कर्म का बन्धन रुक जाता है। Aerava is the influx or Channel of Karmas, while Samvara is the stoppage of Asrava, : बन्ध' आत्मा का कर्म से सम्बन्ध होने का नाम है, और 'निर्जरा' आत्मसम्बद्ध कर्मों का विदारण / ' मोक्ष ' समग्र कर्म-बन्धों से छुटकारा पाने को कहते हैं / जीव की इन अवस्थाओं में पुण्य-पाप, ' आस्रव और ‘बन्ध ' उसकी अस्वाभाविक [ unnatural ] अवस्थाएँ हैं, और ' संवर' और 'निर्जरा ' ये आत्मा के स्वाभाविक और उसे उसकी सच्ची स्थिति पर ले जानेवाले महान गुण हैं / ये दो उसके सच्चे विकासरूप उज्ज्वल प्रयत्न हैं; और इन्हीं प्रयत्नों की अन्तिम अस्था-पराकाष्ठा यह मोक्ष है / वह आत्मा का तमाम कर्म-बन्धों _ * संयुक्त कर्म वियुक्त होगा ही। भावशून्य वेदन से भी अथवा स्वकीय स्थिति पूर्ण होने पर वह जीव से हटेगा ही। पर यह-ऐसी निर्जरा-मूल्यवान् नहीं / आत्मभावना से कर्मों का जो विदारण होता हैं, वही मूल्यवान् निर्जरा है।

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