Book Title: Jain Satyaprakash 1936 05 SrNo 11
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 10
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ कारण के अनेक रीते आहारना प्रमाणनी यस्य धर्मस्य स दर्शनमूल एवंगुणविशिष्टो धर्मों गणत्री शास्त्रमा आवे छे । आखी जीन्दगीना दयालक्षणः” . आहारनी गणत्री पण शास्त्रमा अमुक प्रकारे " भावार्थ-महेलनुं मूल जेम जमीनमां आवे छे । छमस्थादि कालना आहारनी कालना आहारनी पूरेलो पायो छे, वृक्षतुं मूल जेम गणत्री पण शास्त्रमा आवे छे । जेम महावीर भायमा रहेली जटाओ (मूळीयां) छे, एम परमात्माए छद्यस्थावस्थाना १२॥ वर्ष प्रमाण सम्यग्दर्शन जेनुं मूल कहेता आधार छे एवो कालमा ३४९ वखत ज आहार लीधो हतो. दयामय धर्म छे॥ आनी अंदर जेना दिवसमा एक वार शुद्ध आहार लेवो ते आधारे वस्तु रही शके ते मूल कहेवाय छे, मूल गुण होइ शकतो नथी गवो अर्थ सूचववामां आवेल छे । तथा लेखक जगावे छे के, “दिनमें एक जुओ- दर्शनप्राभृत गाथा १०-११:-- बार शुद्ध आहार लेना, यह भी एक मूल जह मूलम्मि विणते दमस्स परिवार गुण है" अर्थात् दिवसमां एकवार शुद्ध पास्थि परिवडढी। आहार लेवो ते मुनिनो मूल गुण कहेवाय तह जिणदसणभट्ठा मूलविणवा ण छ। लेखकनी आ वात व्याजबी नथी । आ सिझंति ॥ १० ॥ बाबतने माटे हवे आपणे विचार करीए. [ यथा मूले विनष्टे द्रुमम्य परिवारम्य 'मूलगुण' आमां बे शब्दो छे, एक 'मूल' नास्ति परिवृद्धि : । अने बीजो 'गुण' शब्द । मूल एटले शुं ! तथा जिनदर्शनभ्रष्टा मूलविनष्टा न जेना नाशथी वस्तुनो नाश थाय, जेना सिद्ध्यन्ति ॥ १०॥ ] सिवाय वस्तुनी निष्पत्ति न होय, जेना भावार्थ- जेवी रोते मूल नाश पामे सिवाय वस्तु न रही शकती होय, तेने मूल छते वृक्षनी अने तेना परिवारनी वृद्धि थती कहेवामां आवे छे । जेम मूलियाना नाशथी नथी तेवी रीते जिनदर्शनथी भ्रष्ट थयेला वृक्षनो नाश थाय छे, मूलियानी उत्पत्तिथी जीवो मूलविनष्ट होवाथी सिद्ध थता नथी । वृक्षनी उत्पत्ति थाय छे, मूळोया सिवाय वृक्ष आनी अंदर जेना नाशथी वस्तुनो नाश थाय रही शकतुं नथी, माटे मूळीयां वृक्षy मूल ते मूल . कहेवाय एम सूचववामां आवेल छे। तथा-- कहेवाय छे । मूल शब्दना उपर जणावेल ___जह मूलाओ खंधो साहापरिवार अर्थमां दिगम्बर शास्त्रनी पण सहानुभूति छ, बहुगुणो होइ। जुओ-दिगम्बरशास्त्र दर्शनप्राभृत गाथा २, अने तह जिणदंसगमूलो णिदिट्टो तेना परनी वृत्ति "दंसणमूलो धम्मो....। दर्शन मोक्खमग्गस्स ॥११॥ सम्यक्त्वं मूलमधिष्ठानमाधारं, प्रासादस्य गर्ता- यथा मूलात् स्कन्धः शाखापरिवारो पूरवत् , वृक्षस्य पातालगतजटावत् , प्रतिष्टा बहुगुणो भवति ।। For Private And Personal Use Only

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