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દિગંબર શાસ્ત્ર કેસે બને? अत्यंत दुःखकी बात है कि यह चूर्णी टीका बनानेका प्रारंभ कर दिया। और यह वृत्ति आज लभ्य नहीं है।
"श्रुतावतार" आर्या १६१ से १७६ में दिगम्बर आचार्योंने कर्मप्राभृत-षट्खंड उल्लेख है कि-" इन शास्त्रों पर पद्मनंदीजी,४४ शास्त्र को अपनाया, एवं दोषप्रामृत (सकपाय- शामकुंडसूरि, तुंबलुर आचार्य, आचार्य समंप्राभूत) को भी जिनागम सा मान्य रक्खा। तभद्र,४५ बप्पदेव, आचार्य वीरसेन और और भिन्न भिन्न आचार्योंने इन दोनों शास्त्रको आचार्य जयसेनने नई नई टीकायें बनाई हैं।
पहले जो भद्रबाहु आदि श्रुतज्ञानी हो गये हैं उनके नाममात्रके सिवाय उनके कोई ग्रन्थ आदि हमें अब तक प्राप्त नहीं हुए हैं। कुन्दकुन्दाचार्यसे कुछ प्रथम ही जिन “ पुष्पदन्त भूतबलि ” आदि आचार्योंने आगमको पुस्तकारुढ किया उनके ग्रन्थोंका अब कुछ पता नहीं चलता।
-जैन शिलालेख संग्रह, भूमिका, पृष्ट १२९ इस मान्यताके अनुसार दिगंबर सम्मत ये प्राचीन ग्रन्थ भी आज विद्यमान नहीं हैं। आज प्राचीन से प्राचीन जो दिगम्बरशास्त्र उपलब्ध हैं वे सभी वीर निर्वाणकी चौदहवीं शताब्दिके ही हैं।
दि० पं० वीरेन्द्रकुमारजी “जैनदर्शन" पाक्षिकके वर्ष ३, अंक १८ में इन ग्रन्थकर्ताओंका समय विक्रम संवत् २४ से पहलेका मानते हैं, मगर सभी दिगम्बर ग्रन्थकार इन आचार्योंको कुन्दकुन्दाचार्य के बादमें हुए मानते हैं, इतना ही नहीं वरन् शक सं० १३२० के विन्ध्यगिरि पर्वतके ने० १०५ के शिलालेखमें साफ खुदा है कि
वीरनिवांग संवत् ६८३ तकमें २३ अंगधारी आचार्य हुए। उनके पश्चात् क्रमश: तेरहवे आचार्य कुन्दकुन्दाचार्य हुए, बादमें और ८ आचार्य हुए, अन्तिम आचार्य गुणभद्रसूरिके दो शिष्य, १ पुष्पदंत और २ भूतबलिजी, थे।
पाठक समझ सकते हैं कि - इस शिलालेखकी गवाहिसे "सकषायप्राभृत' के रचयिता दिगंबर आचार्य पुष्पदंत और भूतबलिजीका समय विक्रमकी प्रथम सहस्राब्दीके बादमें निश्चित होता है। (पृष्ट १९५ से १९९)
४४ दिगम्बर संघमें " पद्मनंदी” नामके अनेक आचार्य हुए हैं । दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्दका भी दुसरा नाम “ पद्मनंदी" है।
४५ आचार्य इन्द्रनंन्दीके " श्रुतावतार" (पद्य) में सूचन है कि – जब आचार्यश्री समन्तभद्रसूरि कर्मप्राभूतकी टीका बना रहे थे, तब उनके गुरुभ्राताओंने साधनोंका अभाव
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