Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Samiti 1921
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Karyalay

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Page 33
________________ अंक ४] दक्षिण भारतमें ९ वीं-१० वीं शताब्दीका जैन धर्म । १४३ और कनकनन्दि । वीरनन्दि रचित एक 'चन्द्रप्रभ नन्दिके शिष्य थे । गोम्मटसारके उल्लेखानुसार कनकचरितं ' नामका ग्रन्थ है जिसके अंतमें लिखा है कि नन्दि इन्द्रनन्दिके शिष्य थे । इससे नेमिचन्द्रकी वे अभयनन्दिके शिष्य थे," और अभयनन्दि गुण- गुरुपरंपराका टेबल इस प्रकार होता है। ५० " णमिऊण अभयणंदिं सुदसायरपारगिंदणंदिगुरुं । गुणनन्दि वरवीरणंदिणाहं पयडीणं पच्चयं वोच्छं ।।" तथा अभयनन्दि " वरइंदणदिगुरुणो पासे साऊण सयलासिद्धत । इन्द्रनन्दि सिरिकणयणदिगुरुणा सत्तट्ठाणं समुद्दिटुं ।” वीरनन्दि कनकनन्दि (गोम्मटसार, कर्मकाण्ड । ) ५१ "बभूव भव्याम्बुजपद्मबन्धुः पतुर्मुनीनां गणमृत्समानः। नेमिचन्द्र सदग्रणीर्देशिगणाग्रगण्यो गुणाकरः श्रीगुणनन्दिनामा ॥ [यह लेख, आरासे जो द्रव्यसंग्रहकी इंग्रेजी आवृत्ति मुनिजननुतपादः प्रास्तमिथ्याप्रवादः प्रकाशित हुई है, उसकी प्रस्तावनाका अविकल अनुवाद सकलगुणसमृद्धस्तस्य शिष्यः प्रसिद्धः । स्वरूप है, ऐसा पीछेसे उसके साथ मिलान करनेसे अभवदभयनन्दी जैनधर्माभिनन्दी मालूम हुआ है । स्वमहिमजितसिन्धुर्भव्यलोकैकबन्धुः ।। -संपादक जै. सा. सं.] भव्याम्भोजविबोधनोद्यतमतेस्वित् समानत्विषः ५२ वरइंदणंदिगुरुणो पासे सोऊण सयलसिद्धतं । शिष्यस्तस्य गुणाकरस्य सुधियः श्रीवीरनन्दीत्यभूत् । सिरिकणयणन्दिगुरुणा सत्तट्ठाणं समुद्दिढं ।। स्वाधीनाखिलवाङ्मयस्य भुवनप्रख्यातकीर्तेः सतां संसत्सु व्यजयन्त यस्य जयिनो वाचः कुतर्काकुशाः ॥" ( गोम्मटसार, कर्मसार, गा० ३८६) [चन्द्रप्रभचरितप्रशस्तिः । श्लोकः १, ३, ४,]

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