Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Samiti 1921
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Karyalay

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Page 50
________________ जैन साहित्य संशोधक [खंड उत्तर रूपे छे. आ बाबत अकलंकदेवे आपेला तेना लक्षण- भाग करे छे प्रत्यक्ष अने परोक्ष. परोक्षना पांच विभाग थी स्पष्ट थाय छे. "प्रश्नने लईने एक वस्तुमा अविरोध करे छे-स्मरण, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान अने आगम. थी विधि प्रतिषेधनी कल्पना ते सप्तभंगी" ( अविरोध- आगमन बीजुं नाम शब्द प्रमाण छे. आप्त वचनमाथी थी एटले दृष्ट अने इष्ट प्रमाण अविरुद्ध ). जे माणसे निपजतुं ज्ञान शब्द प्रमाण. ते वचन,वर्ण, पद अने वाक्योनुं सप्तभंगीनी प्रथम रचना करी हशे तेनो उद्देश ए शोधी बनेलं होय छे. शब्द स्वशक्तिथी अने समयथी ज्ञान कहाडवानो हशे के पुनरुक्ति कर्या विना माणस अमुक पेदा करे छे. आ पछी वचननो सप्तभंगी साथे संबंध वस्तु स्वभाव बिषे केटला प्रश्नो पूछी शके. ( अथवा तो दर्शावे छे. "दरेक जग्याए आ शब्द विधिप्रतिषेध वडे आपणे एम मानीए के सप्तभंगीनो विकाश धीमे धीमे पोताना अर्थने जणावतो सप्तमंगी ने अनुसरे छे." थयो तो जे माणसे छल्ला त्रणा वाक्यो उमेर्या हशे आ रीते आपणे जोई शकीए छीए के सप्तभंगीनो आगम तेनो उद्देश तो आवो ज कोई होवो जोईए.) दाखला अथवा शब्दप्रमाणमा समावेश थाय छे. . तरीके कोई एम पूछे के ' स्यादवक्तव्य ' ने आठमा आ निबंधमां जेनुं विवेचन कयु छ तेने प्रमाण सप्तभंगी भंग तरीके केम स्वीकार्यों नथी ? तो एनो एवो जवाब कहे छे. आने मलती ज बीजी एक सप्तभंगी छे ते नय अपाय के ज्यारे वस्तु विषे स्यादस्ति नास्ति कहेवामां सप्तभंगी कहेवाय छे. प्रमाण अने नयमां ए तफावत आवे छे त्यारे ते वक्तव्य थाय छे. तेथी तेने आठमा भंग छे के प्रमाण वस्तुना सकल स्वरूपनुं निरूपण करे छे, तरीके स्वीकारवानी जरूर नथी. आ रीते एक बाजुथी ज्यारे नय वस्तुना अंश मात्रनुं करे छे. पण एनी सप्तमंगी सत् अने असत् विषे उत्पन्न थता सर्व प्रश्नो. विशेष चर्चा आ निबंधमां थई शके एम नथी तेने माटे नो उत्तर आपी शके छे अने बीजी बाजुए केवल सत् बीजो निबंध लखवानी जरूर रहे छे. इत्यलम्. असत् माननारनुं खंडन करे छे. छतांए मने एम ॥ ॐ शांतिः ।। लागे छे के प्रमाण पद्धतिनी दृष्टिए तो प्रथम त्रण ज भंग आवश्यक छ; चोथाने भाषा-दृष्टिए स्थान छे पण १९ तत् ( प्रमाणं) द्विभेदं प्रत्यक्ष परोक्षं च । स्मरण-प्रत्यभिज्ञा छल्ला त्रणनों तत्त्वज्ञाननी दृष्टिए खास उपयोग " तर्का-नुमाना-गमभेदतस्तल्पच प्रकारकम् । जणातो नथी." २० आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः। वर्णपदवाक्यात्मकं वच . हवे जैन प्रमाण शास्त्रमा सप्तभंगीतुं स्थान क्यां छे नम । स्वाभाविकसामर्थ्यसमयाभ्यामर्थबोधनं शब्दः । सर्वत्रायं ते आपणे जाणवू जोईए. श्रीवादिदेवसूरि प्रमाणना बे ध्वनिविधिप्रतिषेधाभ्यां स्वार्थमभिदधानः सप्तभंगीमनुगच्छति, ननु चोदाहृता नयसप्तभंगी, प्रमाणसप्तभंगीतस्तु तस्याः किंकृतो १८ 'सप्तविध एव तत्र प्रश्नः कुत इति चेत, सप्तविधजिज्ञासा. विशेष इति चेत् सकलविकलादेशकृत इति ब्रूमः। विकलादेशघटनात् । सापि सप्तधा कुत इति चेत्, सप्तधा संशयोत्पत्तेः । सप्त- स्वभावा हि नयसप्तभंगी वस्त्वंशमात्रप्ररूपकत्वात् । सकलादेशघघसंशयः कथमिति चेत्, तद्विषयवस्तुधर्मसप्तविधत्वात् । स्वभावा तु प्रमाण-सप्तभंगी यथावद्वस्तु प्ररूपकत्वात् । अष्टसहस्री, पृ. १२५ प्रमेयकमलमार्तड, पृ. २०६. -- ननु चादीक्षा

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