Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Samiti 1921
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Karyalay

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Page 49
________________ सप्तभंगी अंक ४] शके. कर्यानोमोटो फायदो ए छे के माणस कदाग्रही न थई करबा प्रयास कर्यो होत तो ते वधारे योग्य कहेवात. तेमजे करेल खंडन तो भूलु अने भ्रमणा उपर राम छे. हवे सप्तमंगीनो प्रमाण पद्धतिमी दृष्टिष्ट विचार करीए अने आ विश्वारो आ विशिष्ट रूपमां का प्रयोजनथी मुकाया ते पण जोईए. सप्तभङ्गीनुं बधारे पृथक्करण कर्यो पहेला शंकराचायें तेनुं जे खंडन कर्यु छे तेनो टुंकामां उल्लेख करी जईए. सौथी प्रथम तो जणावद ए छे के तेमणे पूर्व पक्ष नुं कथन पूरेपूरू कयूँ नथी. सप्तभङ्गीनुं स्वादस्ति स्यान्नास्ति इत्यादिथी वर्णन करती वखते तेमणे ' स्वरूपेण अने ' पररूपेण 'ए अगत्याना शब्दो होडी दीधा छे. जो ए ध्यानमां होय तो ते छोड़वायांनी पण शंकराचार्ये ए बाबत उपर लक्ष्य ण नयी आयु. आप्युं अने एमनुं आखुं खंडन आ भूल उपर रचायेलुं छे. एमनो पहलो बांधो एछे के " एक धर्ममा एक साधे असत्त्वादिविरुद्ध धर्मनो समावेश सम्भवे नहिं शीतो जनी माफक १,१५ पररूपेण ए शब्दो ' 16 जो शंकराचार्ये स्वरूपेण अने ध्यानमां लीवा होत अने सत् अने असत् शब्दने पूर्व पक्षीना अर्थमा समजवा प्रयास कमी होत तो तेमने समजात के 'सत् अने 'असत् ' एटला बघा विरोधी नथी. बीजो वांधो ए छे के जेनुं स्वरूप अनिर्धारित छे ते ज्ञान संशयनी माफक प्रमाण न भाय. आ अने बीजा वांधाओ अनेकान्तताने अनिर्धारणात्मक मणवानी अने संशयमूलक गणयानी भूलने परिणामे छे. तेनो रदियो अकलङ्कदेवना उपर आपेला बार्तिकमां आधी जाय छे. त्रीजो वांधो उपर जणाव्युं ले प्रमाणे अनेकान्तताने जे अनिर्धारणात्मक गणवामां आवे छे से धोधो ए छे के प्यारे वस्तुने वक्तव्य कहो छो त्यारे मळी शी रीते ते अवक्तव्य कहेवाय. आ केवल शब्दखल छे. शंकराचार्यना मत मने जैनमत रथे विरोध बन्नेना वस्तुस्वभावना ख्यालमा छे. शंकराचार्य जगत्ने एक मात्र ब्रह्ममय माननार छे ज्यारे जैन अनेकान्त तत्त्वनुं प्रतिपादन करे छे. तेथी शंकराचार्ये जो आ दृष्टिए खंडन . • प्रथम प्रश्न ए छे के प्रमाण पद्धतिमी दृष्टिए खाते भंगो आवश्यक छे ? एटले के वस्तुस्वभाव नक्की करवा माटे सातेमी आवश्यकता छे ? मा बाबत तो स्पष्ट के के एक विधान एक वखते एक ज निर्देश करी शके. विध्यानफ के प्रतिमेवात्मक सथला विध्यात्मक वाक्योनो एक बर्ग अने निषेधात्मकनो एक वर्ग करी आपणे विध्वात्मक वर्गने विधि-विधान कहीए अने निमेवात्मक वर्मने निषेध-विधान कही. इवे मन ए छे के वस्तु समप्रश्न जबा माटे आवा केटला विभामांनी जरूर छे. स्वाभाविक रीले प्रथम वस्तु पोते शुं छे तेमो निर्णय करीए. ए दृष्टि " " " 6 स्यादस्ति वाक्य बराबर के पछी वस्तु झुं नथी ते मक्की करीए अने ते दृष्टिए स्वान्नास्ति मङ्ग बराबर बन्नेमाथी नीपन वस्तुस्वरूप स्वादस्ति छे. आ नास्लि' ते द्विवाक्यात्मक मंगभी दर्शावी शकाम. या प्रथम त्रण मंगोनी जरूर हो ' स्थादस्ति स्वरूपेण घट: ; स्वान्नास्ति पररूपेण घटः; अने स्यादस्ति 'नास्ति क्रमेण' थी समणी शकाय चोथो मङ्ग स्वादवतव्य ' छे. आ भाषा तत्त्वनी दृष्टिए समणी शकाय तेम छे. एक वखतेएक ज वाक्यमां विधि अने प्रतिषेध थई शके नहि. तेथी ते अपेक्षा समने वस्तु अवन कहे पण सप्तभंगीमा निरूपण वीभुं पण एक दृष्टिबिन्दु अने ते एछे के सप्तमंत्री अमुक प्रकारनी वाद पद्धतिमांची उत्पन्न भएकी छे भने आभी सक्षमंगी प्रयोजन विशेष समजाय के आ साधे गंगो सात प्रकारना अनोना ܕ १७ अतस्तदुभयात्म को सौ क्रमेण तच्छब्दवाच्यतामवस्कन्दन् स्वाद् घटश्वाघटश्चेत्युच्यते । यदि तदुभयात्मकं वस्तु घट इत्येबाच्वेस, इतरात्मासंग्रहादतत्वमेव स्वात् । अवापट व इत्युच्येत १५ न ह्येकस्मिन् पाणि युगपत्सदसत्त्वादिविरुद्ध धर्म समावेशः घटात्मानुपादनावनृत्यमेव स्वान वस्तु तावदेषेति । न चान्यः शब्दसंभवति शीतोष्णवत् । शांकरभाष्य, २-२-२२, २३. स्तट्टमवात्मकावस्वतत्त्वाभिभाषी विमले SATS बचन गोचरातीतत्वात 'स्यादवक्तव्य ' इत्युच्यते । राजवार्तिक पू- ६० १६ अनिर्धारितरूपं ज्ञानं संशयज्ञानवत् प्रमाणमेव न स्यात् ।

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