Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Samiti 1921
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Karyalay

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Page 88
________________ १८८ जैन साहित्य संशोधक [ खंड १ हती तेनी असर सज्जडरीते वधती जती हती. बुद्धना बहु तो द्विजोने उद्देशीने छे. वैदिक संप्रदायना अवशिष्ट समये अने त्यार पछी पण केटलाक वखत सुधी ब्राह्मणोए वनस्पति अहारनो स्वीकार पूरे पूरो कर्यो न हतो ए वात सुप्रसिद्ध पंच पंचनख व्रतथी साबीत थाय छे. महाभारत ( १२, १४१, ७० ) मां आ नियम नीचेना रूपमा आपेल - ब्राह्मण, क्षत्रिय अने वैश्ये मात्र पांच पांच नख वाळा प्राणीनुं भक्षण करी आ धर्म प्रमाणे चालवुं अने जे अभक्ष्य छे ते प्रत्ये मन दोरखं नहीं. " "C नियम एक जूना ब्राह्मण कूर्मपुराणमां ए ध्यानमां राखवा जेवुं छे के ते ज जूना बौद्ध जातकमा अने लगभग बधा धर्मग्रंथो–स्मृतिओमां° मळी आवे छे. तेने मनुए कहेलो बताव्यो छे, परंतु मनु ( तेमज गौतम) छ प्राणीओनी अनुमति आपे छे; अने आपस्तंब सातनी पण रजा आपे छे. महाभारतमां बीजे स्थळे ( १२, ३७, २१--२४ )' ' ब्राह्मणने अभक्ष्य एवा प्राणीओनुं एक लांबु लीष्ट व्यास मुनिए आप्युं छे. जो भक्ष्य प्राणीओनी संख्या बहु थोडी होत तो व्यास आटली महेनत लेत नहीं. परंतु समय जतां ज्यारे जैन अने बौद्ध धर्म देशमां प्रबळ थया त्यारे प्राणी-हिंसा अने मांस भक्षण मात्र यज्ञमां ज करवां एवो नियम कर्या वगर ब्राम्हणोथी चलावी लेवायुं नहीं." अने तेमां पण पशुहिंसा वधारे ने वधारे ओछी करवामां आवी अने अन्ते मांसनी इच्छा राखनारा ( आमिषकांक्षिणः पितृओने [ जेओनो मांसभक्षणनो हक्क महाभारतना छल्लो भागोमां सहेज नामरजी साधे स्वीकारवामां आव्यो छे] पण वनस्पति-मक्षक थवानी फरज पाडवामां आवी. अने आखरे दक्षिण हिंदमां ई. स. ना तेरमा सैका मां उत्पन्न थएला माधव संप्रदायना केटलाक प्रतिनिधिओए अन्तिम पगलुं लीधुं. तेमणे गमे ते प्रकारनी प्राणीहिंसाने पापवाळी गणीने धिक्कारी अने यज्ञमां प्राणी बलिदानने स्थाने कहे वातो पिष्ट- पशु एटले अन्ननी बनावेली प्राणीनी आकृति वापरवानो रिवाज दाखल कर्यो.' परन्तु आ सर्व ब्राह्मणोने ज उद्देशीने छे; अथवा १४ वर्गोंने मांसाहारमाथी मुक्त राखवामां आव्या न हता. तेथी आधुनिक स्थिति बहुशः नीचे दर्शाव्या मुजब छे. दक्षिण हिन्दमां सर्वत्र ब्राह्मणो वनस्पति आहार करनारा छे. उत्तरमां घणा ब्राह्मणो मत्स्य भक्षक छे अने काश्मीरमां तो अन्य मांस पण खाय छे. क्षत्रियो सदा मोटे भांगे मांस खाता ज हता अने हजुए खाय छे. वैश्यो ( व्यापारी वर्ग, जेने दक्षिणमां बेटीआर अने उत्तरमां वाणीआ विगेरे कहे छे तेओ ) साधारण रीते ब्राह्मणोना भोजननुं अनुकरण करता देखाय छे. शूद्रो मांस भक्षक तेम ज वनस्पति-भाजी पणं होय छे. घणा भागे तेओ वनस्पति आहार उपर रहे छे, केम के मांस घणुं मोघुं होवाथी तेमना माटे दुर्लभ जेवुं छे. संन्यासीओना विषयमां तो में प्रथम ज कयुं छे के जे नियमोने तेओ अनुसरे छे ते घणे अंशे जैन मतने मळता आवे छे. तेओ झाझे भागे तपस्या करे छे अने तेंथी तेओमांना घणा तो मांसनो स्पर्श पण करता नथी; केम के इंद्रियोना विषयोनी वृत्तिओने तेथी पोषण मळे छे. परन्तु जन्मथी ब्राह्मण एवो एक आदर्श रूप अने विद्वान् संन्यासी के जेना परिचयमां हुं आव्यो छु, तेणे मने कह्युं श्रद्धापूर्वक अर्पण करवामां आवेली मांसवाळी वस्तुनो पण अनादर करवो ए खरा भिक्षु माटे अयोग्य अने दौर्बल्यसूचक छे. तेनो विचार आवो होय एम जणाय छे, के जे यति तेने आपवामां आवेली खावायोग्य गमे ते वस्तु खावाने शक्तिमान न होय, ते तैत्तिरीय उपनिषद्मां ( २, ) कहेल, तेनी अने संसारनी वच्चे रहेला खाडानी ( 'उदरं अन्तरं ' नी ) पेलीपार जवाने फतेह थयो गणाय नहीं; तेम ज द्वन्द्व-मोह अने जुगुप्साने जीत्यां गणाय नहीं, के जे आत्म-साक्षात्कारमां मुख्य साधन मनाय छे. आ उपरथी ' मिलिन्दपह्न ' ( ३,६ ) नो एक जाणवा जेवो उल्लेख स्मरणमां आवे छे, जेमां बौद्ध साधु कहे छे के " हे महाराज ! ते हजु रागथी मुक्त थयो नथी, जे भोजन करती वखते

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