Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Samiti 1921
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Karyalay

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Page 34
________________ [ख जैन साहित्य संशोधक। जं बु ही व प ण्ण ति। (ग्रंथ परिचय ) [ले. श्रीयुत नाथूरामजी प्रेमी ] जैन साहित्यमें करणानुयोगके ग्रंथोंकी एक समय इसी प्रकारकी धारणा थी, जिस प्रकार कि जैन बहुत प्रधानता रही है। जिन ग्रंथोमें ऊर्ध्वलोक, धर्मके करणानुयोगमें पाई जाती है । पृथ्वी थालीके अधोलोक, और मध्यलोकका: चारों गतियोंका, और समान गोल और चपटी है, उसमें अनेक द्वीप और यूगोंके परिवर्तन आदिका वर्णन रहता है, वे सब ग्रन्थ समुद्र हैं, द्वीपके बाद समुद्र और समुद्र के बाद दीप, करणानुयोगके' अन्तर्गत समझे जाते हैं। आजक- इस प्रकार क्रम चला गया है। जम्बूद्वीपके बीच में लकी भाषामें हम जैन धर्मके करणनुयोगको एक तर- नाभीके तुल्य सुमेरु पर्वत है, इत्यादि । परन्तु पीछेसे हसे भगोल और खगोल शास्त्रकी समष्टि कह सकते विद्वान् लोगोंके अन्वेषण और निरीक्षणसे इस विषयका हैं । दिगंबर और श्वेतांबर दोनोंही संप्रदायमें इस विष- शान बढता गया, और आर्यभट्ट, मास्कराचार्य आदि यके सैकड़ों ग्रन्थ हैं. और उनमें अधिकांश बहुत प्राचीन महान् ज्योतिषिओमे तो पूर्वोक्त विचारोंको बिलकुलही हैं । इस विषयपर जैन लेखकोंने जितना अधिक लिख्खा बदल डाला । इसका फल यह हुआ कि इस विषयका है उतना शायदही संसारके किसी संप्रदायके लेखकोंने जो प्रारंभिक हिन्दु साहित्य था उसका बढना तो दूर लिखा हो । परंरापरासे यह विश्वास चला आता है रहा, मगर वह धीरे धीरे क्षीण होता गया और इधर कि इन सब परोक्ष और दूरवर्ती क्षेत्रों या पदार्थोंका चूंकि जैन विद्वानोंका विश्वास था कि यह साक्षात् सर्वज्ञ वर्णन साक्षात् सर्वज्ञ भगवानने अपनी दिव्य-ध्वनीमें प्रणीत है; अतएव वे इसे बढाते चले गये और नई किया था । जान पडता है कि इसी अटल श्रद्धाके खोजों तथा आविष्कारोंकी और ध्यान देनेकी कारण इस प्रकारके साहित्यकी इतनी अधिक वृद्धि उन्होंने आवश्यकताही नहीं समझी। हुई और हजारों वर्ष तक यह जैन धर्मके सर्वज्ञ प्रणीत यह करणानुयोगका वर्णन केवल इस विषयके स्वतंत्र होनेका अकाटय प्रमाण समझा जाता रहा । ग्रन्थों में ही नहीं है, प्रथमानुयोग या कथानुयोगाहिंदुओंके पौराणिक मूवर्णनको पढनेसे ऐसा मालम दिके ग्रन्थों में भी इसने बहुत स्थान रोका है। दिगम्बर होता है कि दो ढाई हजार बरस पहले भारतके तक संप्रदायके महापुराण, हरिवंशपुराण, पद्मपुराणादि प्रधान Perum प्रायः सभी संप्रदायवालोंका पृथ्वीके आकार-प्रकार २पराणोंमें तथा अन्य चरित्र ग्रन्थोंमेभी यह खब और द्वीप-समुद्र-पर्वतादिके सम्बन्धमें करीब करीब विस्तारके साथ लिखा गया है । श्वेताम्बर संप्रदायके १ लोकालोकविभक्तेयुगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च । कथा ग्रन्थोंका भी यही हाल है । बल्कि इस आदर्शमिव यथामतिरवैति करणानुयोगं च ।। संप्रदायके तो आगम ग्रंथोंमें भी इसका दौरदौरा है । -रत्नकरण्ड श्रा० भगवती सूत्र (व्याख्यामज्ञप्ति ) आदि अंग और जम्बू

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