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१५२] जैन साहित्य संशोधक.
[ खंड २ सं० ८८७ आषाढ शुक्ल १० वीं सिद्ध होता है। श्रीयुत राय बहादुर बाबू हीरालालजीने मेरे लिये
स तिथि का मि. स्वामी कन्नूपिलाइ के 'इंडियन एफेमेसिस' नामक सारिणी से मिलान किया तो इसकी अंग्रेजी सम-तिथि ११ जून सन् ९६५ ईस्वी (रविवार) आती है। प्रेमीजीने 'चंदरुइअढए' का अर्थ ' सोमवार' किया है। पर मेरी समझ में उसका ठीक अर्थ चंद्रवार नहीं शुक्लपक्ष है । चंद्ररुचि रूढे--अर्थात् जब चंद्रमा वृद्धिशील होता है । मुझे भी सन्देह था कि सम्भव है उक्त पद में सोमवार का भी भाव हो और शायद आषाढ शक्ल १० वीं रविवार को प्रारम्भ होकर सोमवार तक गई हो। पर राय बहादुर हीरालालजी उसका ठीक मिलान कर लिखते हैं कि उक्त तिथि रविवार को ही सूर्योदय से १३ घंटे १५ मिनट पश्चात् अर्थात् सायंकाल को समाप्त हो चुकी थी।
अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जब पुष्पदन्तने अपने पुराण समाप्त होने के माह और तिथि दिये हैं तब क्या उन्होंने संवत् का उल्लेख नहीं किया होगा? यह तो सिद्ध है कि 'छसय छडोत्तर कय सामत्थे' वाला पाठ ठीक नहीं है या कम से कम उपर्युक्त चार संवतों के अनुसार वह ठीक नहीं बैठता। पर उसके स्थान पर कारंजा की प्रति का जो पाठ है उसमें संवत् आदि का कोई भाव नहीं है। जब मैंने कारंजा की प्रति का अवलोकन किया था, उस समय तक प्रेमीजी के अवतरण मेरे देखने में नहीं आये थे। तब मुझे ऊपर उद्धत पद्यों में जइ आहिमाण मेरुणामके' में किसी संवत् की सूचना छुपी होने का सन्देह हुआ था, पर प्रेमीजी के संवत् का स्पष्ट बोध करानेवाले पाठ को देखकर मेरा वह सन्देह दूर हो गया था। पर अब पुनः मेरी दृष्टि उसी पद पर जाती है । मैंने अपने इस सन्देह का संकेत बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार से भी किया था। पर उन्होंने लिखा कि 'अभिमानमरु' कवि का उपनाम है, उसमें अंकों आदि का कोई भाव नहीं। पर मुझे इससे सन्तोष नहीं हुआ 'अभिमानमेरु' कवि का उपनाम अवश्य है; कई स्थानापर उन्होंने अपने इस 'विरुद' का उल्लेख किया है; पर हो सकता है कि यहां पर कावे का वह भाव रहा हो और अंकों का भी। खासकर 'अंक' शब्द से यह सन्देह और भी दृढ़ होता है। अंक का लांछन भी अर्थ होता है और गणना भी। अतः संभव है कि प्रयत्न करने से उसमें संवत् का भाव निकले । उक्त पद के एक २ अक्षर को लीजिये। 'जइ' संस्कृत के ‘यति' का अपभ्रंश-रूप विदित होता है । उससे सप्त ऋषियों का भी बोध हो सकता है अतः उसको अंक संख्या ७ मानी जा सकती है। 'अहिमाण' अभिमान के बराबर है जिससे अष्ट मद का बोध होता है और उसको अंक संख्या ८ ली जा सकती है। 'मेरु' से आठ का भाव लेने के लिये मैं कोई प्रमाण नही पा सका। पर यदि उसमे ८ का भाव लिया जा सकता हो और 'अंकानां वामतो गतिः' के नियमानुसार हम इन अंकों को 'दाये से बांई ओर को रक्ख' तो संवत् ८८७ निकल सकता है। बहत सम्भव है कि इस पद में ऐसा अर्थ हो, पर जब तक अष्ट मेरु के लिये कोई प्रमाण न मिल जावे तब तक इस कल्पना पर अधिक जोर नहीं दिया जा सकता।
जब हम यह सिद्ध करते हैं कि महापुराण शक संवत् ८८७-(वि० सं० १०२२ ) में समाप्त हुआ था तब हमें मानना पड़ेगा कि मान्यखेट की जिस लूटमार का कविने उत्त पुराण के ५० व
२५ जैन शास्त्रों में · मेरु' पांच माने गये हैं । शक संवत् ५८७ भी क्रोधन था पर अन्यप्रमाणों से वह समय पुष्पदन्त के लिये ठीक नहीं माना जा सकता ।
Aho ! Shrutgyanam