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अंक ३]
महाकवि पुष्पदन्त के समय पर विचार.
उपाधि थी। ‘तुड़िगु' तामिल व कनड़ी आदि किसी दक्षिणी भाषा का शब्द है । सम्भवतः वह भी कोई प्रतापसूचक उपाधि होगी। ___अब हमें प्रेमीजी के उस पाठ पर विचार करना चाहिये, जिससे महापुराण की समाप्ति सं० ६०६ में पाई जाती है । समयसूचक पद्य 'जैन साहित्य संशोधक' में उद्धृत अंश के अनुसार
पुप्फयंत कयणा धुयपंके। जइ अहिमाण मेरुणामंके । कयउं कख भत्तिए परमत्थे। छसय छडोत्तर कय सामत्थें ।
कोहण संवच्छरे आसाढए । दहमए दियहे चंद रुइ रूढ़ए । निस्सन्देह इन पदों से संवत् ६०६, क्रोधन, आषाढ शुक्ल १० वीं को महापुराण समाप्त होने का बोध होता है। अब इनके स्थान पर कारंजा की प्रति का पाठ देखिये:
पुप्फयंत कहणा धुयपंके । जइ अहिमाण मेरुणामंके। कयउ कव्वु भत्तिए परमत्थे। जिणपयपंकय मउलियहत्थे ।
कोहण संवच्छरे आसाढए । दहमा दियहे चंदरुइ रूढए । यह पाठ और तो सब बातों में ऊपर के पाठ के ही समान है पर इसमें सं०६०६ के सूचक पद का पता नहीं है । उसके स्थान पर जो पद है उससे संवत् का कोई बोध नहीं होता । इन पाठों में से कौनसा शुद्ध और कौनसा अशुद्ध माना जाय । प्रेमीजी मुझे सूचित करते हैं कि ऊपर वाला पाठा अनेक प्राचीन प्रतियों में पाया जाता है। इससे उसे सहसा अशुद्ध और जाली कहने का भी साहस नहीं होता। न तो सं० ६०६ शक गणना के अनुसार क्रोधन था और न विक्रम गणना के अनुसार । पर सम्भव है कि यह इन से भिन्न कोई और संवत् का वर्ष हो ।
अब हमें महापुराण की समाप्ति का समय अन्य प्रकार से शोधना पड़ेगा। इस पुराण के प्रारम्भ के एक पद्य से विदित होता है कि पुष्पदन्तने उस पुराण की रचना किसी सिद्धार्थ संवत्सर में प्रारम्भ की थी । सोमदेवकृत यशस्तिलक चम्पू के उपसंहार वाक्य को देखियेः
“शक-नृप-कालातीत-संवत्सर-शतेष्वष्टस्वेकाशीत्याधिकेषु गतेषु अंकतः (८८१) सिद्धार्थसंवत्सरान्तर्गत चैत्रमासमदन-त्रयोदश्यां पांड्य-सिंहल-चोल-चेरम-प्रभृतीन्महीपतीन्प्रसाध्य मेलपाटीप्रवर्धमान-राज्य-प्रभावे श्रीकृष्णराजदेवे सति तत्पादपद्मोपजीविनः समधिगत-पञ्च-महा-शब्दमहासामन्ताधिपतेश्चालुक्यकुल-जन्मनः सामन्तचूडामणेः श्रीमदरिकेसरिणः प्रथम पुत्रस्य श्रीमद्वद्दिगराजस्य लक्ष्मीप्रवर्द्धमान-वसुंधरायां गंगाधारायां विनिर्मापितमिदं काव्यमिति ।”
इससे प्रसंगोपयोगी हमें केवल इतनी बात विदित होती है कि शक सं० ८८१ सिद्धार्थ संवत्सर था और उस समय मान्यखेट में चोल आदि नरेशों को जीतने वाले राजा कृष्णराज (तृतीय) का राज्य था। महापुराण का प्रारम्भ भी इसी सिद्धार्थ संवत्सर में होना चाहिये।
ण की समाप्ति का समय प्रेमीजी के पाठ के समान हो 'कारंजा' की प्रति में भी क्रोधन संवत्सर आषाढ शुक्ल १० वीं दिया हुआ है। क्रोधन संवत्सर साठ-साला-संवत्-चक्र में सिद्धार्थ संवत्सर से६ वर्ष बाद आता है। अतः महापुराण की समाप्ति का ठीक समय शक
२३ यह प्रति संवत् १६०५ मार्गशीर्ष वदि ८, भृगुवार की है।
२४ गुप्त और कलचुरि संवत् से भी यह समय ठीक नहीं बैठता । गुप्त संवत् का प्रारम्भ सन् ३१९ ईसवी व कलचुरि संवत् का सन् २४९ ईसवी से माना जाता है।
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