Book Title: Jain Parampara ka Itihas
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 5
________________ प्रज्ञापना जेन परम्परा उतनी ही प्राचीन है, जितनी आत्मा की परम्परा और आत्मा का दर्शन | उसके इतिवृत्त के आकलन का अर्थ है अध्यात्म - उत्कर्ष के बहुमुखी विकास का आकलन । महान् द्रष्टा, जनवन्द्य आचार्य श्री तुलसी के अन्तेवासी मुनि श्री नथमलजी द्वारा रचे 'जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व' से गृहीत 'जैन परम्परा का इतिहास' नामक यह पुस्तक जैन संस्कृति, विचार-दर्शन और आचार - परम्परा के प्राग्- ऐतिहासिक एव ऐतिहासिक काल के विविध पहलुओ पर पर्याप्त प्रकाश डालती है । प्रागैतिहासिककालीन कुलकर-व्यवस्था, धर्म-तीर्थ- प्रवर्तन, सामाजिक जीवन का विकास, ऐतिहासिककालीन व्यवस्थाए, सघीय परम्पराए, जैन साहित्य का सर्वतोमुखी विकास, जैन धर्म का समाज पर प्रभाव, सव- व्यवस्था और चर्या प्रभृति अनेक विषयो का मुनि श्री ने इसमे सूक्ष्म अन्वेषण पूर्वक विवेचन किया है । श्री तेरापन्थ द्विशताब्दी समारोह के अभिनन्दन में इस पुस्तक के प्रकाशन का दायित्व सेठ मन्नालालजी सुराना मेमोरियल ट्रस्ट, कलकत्ता ने स्वीकार किया यह अत्यन्त हर्प का विषय है । तेरापथ का प्रसार, तत्सम्वन्धी साहित्य का प्रकाशन, अणुव्रत आन्दोलन का जन-जन मे सचार ट्रस्ट के उद्देश्यो मे से मुख्य है । इस पुस्तक के प्रकाशन द्वारा अपनी उद्देश्यपूर्ति का जो महत्त्वपूर्ण कदम ट्रस्ट ने उठाया है, वह सर्वथा अभिनन्दनीय है । जन-जन मे सत्तत्त्त्र-प्रसार, नैतिक जागरण की प्रेरणा तथा जन सेवा का उद्देश्य लिये चलने वाले इस ट्रस्ट के संस्थापन द्वारा प्रमुख समाजसेवी, साहित्यानुरागी श्री हनूतमलजी सुराना ने समाज के साधन सम्पन्न व्यक्तियो के समक्ष एक अनुकरणीय कदम रखा है । इसके लिए उन्हें सादर धन्यवाद - है ।

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