Book Title: Jain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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सम्पादकीय
जैन धर्म निवृत्ति मूलक धर्म है। यहाँ तप-त्याग को जीवन का अभिन्न अंग माना गया है। इस निवृत्ति परक साधना को जीवन में कैसे जीया जाए? किस प्रकार इसे आचरण का आधार बनाया जाए? किस रूप में इनको अपनाया जाए? आदि का स्पष्ट उल्लेख जैन आगमों में प्राप्त होता है। जैन अनुयायियों के महाव्रत एवं अणुव्रत साधना का विधान आगम ग्रन्थों में निर्दिष्ट है। मनि जीवन में महाव्रत साधना एवं गृहस्थ साधक के लिए अणुव्रत साधना के रूप में आज भी यह परम्परा आचरित है।
प्रस्तुत कृति में व्रतारोपण विधि की चर्चा की गई है और उसका सम्बन्ध मुनि जीवन में महाव्रतों के आरोपण से है। जैन परम्परा में मुनि जीवन की संयम यात्रा का प्रारम्भ सामायिक चारित्र से होता है। प्राचीन जैन आगमों में सम्यक चारित्र की साधना के पाँच स्तर माने हैं- १. सामायिक चारित्र २. छेदोपस्थापनीय चारित्र ३. सूक्ष्म संपराय चारित्र ४. परिहार विशुद्धि चारित्र ५. यथाख्यात चारित्र। ऐसा माना जाता है कि वर्तमान युग में परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म संपराय और यथाख्यात इन तीनों चारित्रों का पालन सम्भव नहीं है। प्रारम्भ के दो चारित्रों के साथ तो ऐसा संबंध है कि उनके बिना तो मुनि जीवन की साधना में प्रवेश ही नहीं पाया जा सकता, क्योंकि सामायिक की साधना से ही समत्व गुण का विकास संभव होता है और समता में रहना यही मोक्ष का अनन्तर कारण है। वर्तमान में इसे छोटी दीक्षा के नाम से भी जाना जाता है जबकि छेदोपस्थापनीय चारित्र बड़ी दीक्षा के नाम से प्रचलित है।
छेदोपस्थापनीय चारित्र में महाव्रतों की साधना की जाती है। सामायिक चारित्र की साधना करने वाला साधक यद्यपि मुनि रूप में अपना जीवन यापन करता है किन्तु फिर भी उसे मुनि संघ का साधक नहीं माना जाता। वह एक Intern या Training लेने वाले विद्यार्थी की भाँति होता है जो सामर्थ्य एवं स्वेच्छा अनुसार महाव्रतों का स्वीकार अथवा अस्वीकार कर सकता है। सामायिक साधना यह महाव्रत साधना की पृष्ठाधार भूमि के रूप में कार्य करती है।
सामायिक चारित्र की साधना में जब साधक अपनी परिपूर्णता का अनुभव करता है और गुरु उसे अपनी साधना के योग्य समझ लेता है तो उसे छेदोपस्थापनीय चारित्र दिया जाता है। यह छेदोपस्थापनीय चारित्र व्रतारोपण या महाव्रतारोपण के रूप में होता है। जैसा कि हम जानते हैं कि मुनि जीवन के व्रतों