Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 9
________________ पE भावना और सामायिकका रहस्य। लिए मनमें हर्ष विषाद न कर उदासीन भावसे आत्मा नियत समयमें चाहे उटपटांग या रहना, ‘माध्यस्थ्य' भावना कहलाती है। माध्य- अनावश्यकीय कार्य करे, चाहे उन शत्रुस्थ्य भावनाका अनुयायी कभी यह चिन्तवन न ओंको जो चिरकालसे संतप्त करते आये हैं, करेगा कि पापी दखी हो और न वह पापीको जडसे नाश कर दे । इसके द्वारा दोनों ही किसीकी शान्तिमें या उन्नतिमें ही बाधक देख कार्य हो सकते हैं। कौनसा करना चाहिए सकेगा । इस विषयपर बहुतसी बातें विचार- और कौनसा नहीं, यह उसकी पसंदगी पर णीय हैं; किन्तु उनके लिए अभी अवकाश निर्भर है और इसी पसंदगी पर उसका सदानहीं है। का दुःख या सुख आश्रित है । ___ भावनाकी निर्मलता और पुष्टिके लिए इसी हेतुसे परदुःखभंजक जैनशास्त्रोंने जो सामायिक, प्रतिक्रमण, प्रोषध महान् गुरुओंने 'अनर्थदण्डविरति ' व्रतका उपआदि क्रियायें बताई हैं उनके संबन्धमें अब देश प्रत्येक शस्त्रधारी अर्थात् मनुष्यको हम कुछ व्यावहारिक बातोंका विचार करेंगे। दिया है । पैसेके समान वस्तुयें, जो कि यहीं । ये तीनों क्रियायें वास्तवमें बहुत मह- रहनेवाली हैं, या अन्नादि वस्तुयें, जो कुछ ही त्त्वकी और लाभप्रद हैं। इस बातको माने- समय पीछे विष्ठाका रूप धारण करनेविना तर्कशास्त्र, मानसशास्त्र और व्यवहार वाली हैं। इनकी प्राप्ति या उपभोगमें ही आत्मा शास्त्रके वेत्ताओंका भी काम न चलेगा। इस शस्त्रका हर समय उपयोग न करता इन तीनोंके संबन्धमें यहाँ केवल कुछ खास रहे और क्रोध, मान, माया, लोभके-जो कि खास बातें ही बताई जायँगी। इनकी फिला- एक क्षण मात्रके लिए ही सुखोत्पादक हैंसफी इतनी गहन है कि पूर्णतया विचार किया उत्पन्न करने या इनको स्थायी बनानेके जाय तो इन पर बड़े बड़े ग्रंथ लिखे जा प्रयत्नमें ही इस शस्त्रको काममें न लाता सकते हैं। यह हमें अवश्य मानना पड़ेगा रहे, इसी लिए विश्वगुरुओंने ' अनर्थदण्डकि इस समय जो ग्रंथ प्राप्त हैं वे बुद्धिवा- विरति' व्रतका उपदेश दिया है । इसके दको तृप्त करनेके लिए काफ़ी नहीं हैं। कारण अपने हितको नाननेवाले पुरुष अपने ___ आत्मा महान् कार्य सम्पादनके लिए, शस्त्रका विशेष उत्तम या चिरस्थायी लाभया अनन्त या असंख्य भवोंको मिटाने लिए दायक कार्यके करनेमें उपयोग करने लगते मनुष्यशरीररूपी समर्थ शस्त्र प्राप्त करता हैं। इस सब प्रकारके निष्प्रयोजन कार्यों, है। यह शस्त्र किसी नियत समय तक ही शब्दों, और विचारोंसे पृथक् रहनेकी आज्ञा रहनेवाला है, या यों कहिए कि अमुक समय करनेवाले व्रतको पूर्णतया समझने या समतकका ही यह परवाना है । इस शस्त्रसे, झानेका शायद ही कहीं प्रयत्न किया जाता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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