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जैनोंकी वर्तमान दशा।
होना एक प्रकारकी आत्मिक निर्बलता है। रशाही आज्ञाके सिवाय और कुछ नहीं कामवासनाके विरुद्ध युद्ध करने और उसमें है । जिस शत्रुको पुरुषवर्ग भी-जो विजय प्राप्त करने लिए बड़े भारी आन्त- स्त्रियोंकी अपेक्षा अधिक बलवान् , ज्ञानवान्, रिक बलकी और आत्मज्ञानरूपी शस्त्रकी और अनुभवी है-पचास वर्षकी उमर हो जाने आवश्यकता है । जिस तरह राजाका अपने पर भी नहीं जीत सकता है, वही शत्रु, अपरितृप्त शत्रुके विरुद्ध लड़नेके लिए निर्बल और निःशस्त्र अज्ञान, अनुभवहीन स्त्रियों-अबलाओंके द्वारा मनुष्योंका भेजना अन्याय है, उसी प्रकार जीता ही जाना चाहिए, ऐसी आज्ञा देनेवाले काम जैसे प्रबल शत्रुके सामने-जिससे कि बड़े सचमुच ही बहुत बड़े साहसका कार्य करते हैं। बड़े ऋषि मुनि भी हार मान गये हैं-आन्तरिक आश्चर्यकी बात तो यह है कि ये लोग इधर बल और आत्मज्ञानहीन व्याक्तियोंका-चाहे वे तो 'स्त्रियोंको विकारवश होना ही न चाहिएपुरुष हों या स्त्री-लड़नेके मजबूर किया जाना उन्हें सदा ब्रह्मचर्यसे ही रहना चाहिए ' इस भी अस्वभाविक और पागलपन है । जब दो तरहकी अस्वाभाविक आज्ञा जारी करके असमान पक्षोंमें युद्ध होता है तब उसका प्रकृतिपर शासन करनेका दम भरते हैं और परिणाम निर्बल पक्षकी हार ही होती है यह उधर आप स्वयं एकके बाद एक चाहे जितने जाननेपर भी-इस खयालसे कि पराजयसे या ब्याह करते जाते हैं। सन्तान होने पर भी ब्याह हारसे भी बल मिलता है, यदि अशक्त व्यक्तियाँ करते हैं, बूढे हो जाने पर भी ब्याह करते हैं, कामसेनाका सामना करनेके लिए भेजी जाय, एक स्त्रीके होने पर भी दूसग ब्याह करते हैं और तो ऐसी दशामें भेजनेवाले समाजको युद्धके इतनेपर भी तृप्ति नहीं होती है तो छपकर या परिणाम पर अप्रसन्न न होना चाहिए । अर्थात् प्रकटरूपसे एक दो गैर स्त्रियोंसे भी पण्यस्त्रियोंसे वे निर्बल व्यक्तियाँ कामसेनाके प्रबल आक्रमणके भी सम्बन्ध रखते है। स्वयं इनके चरित्रकी सामने कुछ समय तक साहससे लड़ती रहकर यह दशा है तो भी यदि कोई अपरितृप्त यदि अन्तमें हार जायँ-कामसेनाके वश हो बालविधवा फिरसे ब्याह करनेकी इच्छा करती जायें तो इसके लिए हारनेवाली व्यक्तियोंको है, तो ये उसे अधर्मिणी, पापिनी, दुष्टाके अधर्मी, पापी, नीच, व्यभिचारी आदि उपनामोंसे विशेषण लगानेके लिए तैयार रहते हैं ! यह तिरस्कृत या जातिबहिष्कृत आदि दण्डोंसे द- क्या समाजका साधारण अन्याय और अज्ञान ण्डित न करना चाहिए । यदि ऐसी सहिष्णुता है ? हमारा समाज चालीस या पचास वर्षके -ऐसी उदारवृत्ति समाज न रख सके-यथेष्ट पुरुषका पाँचवाँ ब्याह खूब ठाठवाट और आनआत्मबल और ज्ञानशस्त्रके अभावके कारण न्द उत्साहके साथ करता है और इसमें ज़राभी यदि किसी स्त्रीपुरुषका कामसेनासे हार जाना अधर्म, अनीति या अनौचित्य नहीं समझता है, या विषयसेवन करने लगना समाजसे सहन पर उसीकी ही मूर्खतासे बालपनमें विधवा बनी न हो सके, तो उसे चाहिए कि ऐसे स्त्रीपुरुषोंको हुई कोई निराधार स्त्री यदि कामसेनाके सामने कामसेनाके सामने युद्धके लिए जाने और युद्ध करनेमें ज़रा भी आनाकानी करती है विजय करके ही आनेको मजबूर न करे । ऐसा तो उस पर अपने सारे अन्यायी अस्त्र शस्त्रोंको करना प्रकृतिविरुद्ध, अन्याय और नादि- लेकर टूट पड़ता है । मालूम नहीं यह किस प्रका
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