Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 67
________________ TITIATIO mmmmmmmIII नये वर्षका निवेदन । हितैषीकी लेख-संकलन-शैलीमें भी एक आदि धर्मोके परिचय, पाश्चात्य तत्त्वज्ञानियोंके महत्त्वका परिवर्तन किया गया है और इससे विचार, भारतीय इतिहाससम्बन्धी नई नई अब इसका विचार-क्षेत्र बहुत विशाल बन खोजें, साहित्यकी आलोचनायें, मनोरंजक गल्में गया है। अभीतक जैनसमाजके-विशवकर उपन्यास आदि सभी विषयोंका ज्ञान इन लेखोंके दिगम्बर सम्प्रदायके जितने पत्र निकलते हैं द्वारा बढ़ाया जायगा। प्रायः उन सबके विचारोंकी सीमा केवल जैनधर्म, जैनसहित्य और जैनसमाज तक ही परि- ज्ञानविस्तारके साथ साथ हम यह भी चाहते मित है; इस क्षेत्रके बाहर वे शायद ही कभी हैं कि हमारे पाठक स्वतंत्र विचार करना सीखेंकदम बढ़ाते हों। उनकी इस शैलीको हम केवल दूसरोंके ही अनुगामी न बने रहें । इसके बुरा नहीं समझते हैं। कमसे कम किसी समाज- लिए यह आवश्यक है कि जब किसी विषयकी को जगानेके लिए शुरू शुरूमें तो यह शैली चर्चा उठे, कोई आन्दोलन शुरू हो, तब उस अवश्य ही लाभदायक है, परन्तु गत २५ विषयकी अनुकूल और प्रतिकूल दोनों बाजुयें वर्षों में जैनसमाजकी जितनी प्रगति और बौद्धिक पाठकोंके सन्मुख रक्खी जायँ । ऐसा करनेसे उन्नति हुई है, वह हमें इसीमें सन्तुष्ट नहीं रख पाठक प्रत्येक विषयको दोनों दृष्टियोंसे देख सकती--अब वह अपनी परिमित सीमासे बाहर सकेंगे और तब अपना स्वतंत्र विचार स्थिर कर क्या है सो भी जाननेके लिए उत्कण्ठित करती सकेंगे। हम किसी एक पक्षके नहीं किन्तु है । वह कहती है कि केवल घरके भीतरकी 'सत्य' के अनुयायी हैं और मनुष्यमात्रको इसी बातें जान लेनेसे ही घरका पूरा और सुनिश्चित 'सत्य' धर्मका अनुयायी होना चाहिए । संभव ज्ञान नहीं हो सकता—इसके लिए बाहरके है कि एक पदार्थको हमने जिस रूपमें देखा ज्ञानकी भी आवश्यकता है । बाहरके ज्ञानसे है, वह वैसा न हो; क्योंकि हम छद्मस्थ हैं घरकी खूबियाँ और भी अच्छी तरह समझी और हमसे प्रतिकूल विचार रखनेवालेने उसे जा सकती हैं। केवल घरमें ही घुसे रहनेसे वास्तविक रूपमें देखा हो-उसके ज्ञानका उलटा नुकसान होनेका डर रहता है। क्षयोपशम विशेष हो गया हो। ऐसी दशामें संभव है कि बाहरकी ओरसे आँखें बन्द किये क्या हमारा यह कर्तव्य नहीं है कि हम अपनेसे रहनेवाला मनुष्य बाहरको बिलकुल ही भुला दे विरुद्ध विचारोंको भी प्रकाशित करें और इस और यह समझ बैठे कि बाहर कुछ है ही तरह लोगोंको 'सत्य' की प्राप्तिका मार्ग प्रशस्त नहीं-अथवा बाहर जो कुछ है सभी बुरा है। कर दें ? इसी कर्तव्यके अनुरोधसे जैनहितैषीमें अब हमारा समाज इस योग्य हो चला है कि ऐसे भी लेख प्रकाशित होंगे जिनसे सम्पादक बाहरसे भी ज्ञान सम्पादन करे और उससे सहमत नहीं है अथवा जिनसे वह स्वयं विरुद्ध अपनी भीतरी दशाका सुधार करे । इस ख़या- है-शर्त यह है कि वे अच्छे विचारशील और लसे जैनहितैषीमें जैनजगतसे बाहरके लेख भी निष्पक्ष विद्वानोंके लिखे हुए या प्रकट किये हुए प्रकाशित किये जायेंगे । प्रसिद्ध प्रसिद्ध देशी होना चाहिए । अतः पाठकोंसे प्रार्थना है कि वे विदेशी स्त्री पुरुषोंके जीवनचरित, वैज्ञानिक जैनहितैषीके किसी लेखको पढ़कर यह विश्वास खोजें, ईसाई, जरथोस्त, बौद्ध, कनफ्यूसिस न कर लें कि उसके विचारोंसे सम्पादक सहमत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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