Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 65
________________ जैनोंकी वर्तमान दशा । ६ नये नियमों की सृष्टि करनेकी इच्छा रखनेवाले समाजको यह बात स्मरण रखना चाहिए कि ऐसे कोई भी सुधार न कभी हुए हैं और न होंगे जिनसे केवल लाभ ही होता हो, किसी 'प्रकार की परोक्ष हानि बिलकुल ही न होती हो । यदि हम अपनी आवश्यकताओंकी पूर्ति के लिए कोई ' सुधार ' कर रहे हों और उसमें कोई परोक्ष हाज़र आती हो-जो कि बिलकुल स्वाभाविक और अनिवार्य हैतो इससे हमें निराश या हतोत्साह न हो जाना चाहिए | जीवन एक युद्ध है । इस युद्धमें बलवान् पक्ष भी चोट खाये बिना विजय प्राप्त नहीं अतः 1 कर सकता । इन सब बातों पर ध्यान रखकर स्त्रीवर्गको समाका सुखी, बलवान्, पवित्र और उपयोगी अंग बनानेका प्रयत्न करना चाहिए । इसकी बहुत बड़ी आवश्यकता है । जिस समाजका लगभग आधा भाग दुखी, निर्बल, अज्ञान, भाररूप, निरूपयोगी, शाप देनेवाला और उसाँसें लेनेवाला है, कैसे आशा की जा सकती है कि वह समाज कभी व्यवहारमें या धर्ममें ऊँचा स्थान प्राप्त कर सकेगा ? । ये सारे विचार मेरे मस्तिष्क में केवल पाँच मिनिटके भीतर उत्पन्न हुए थे। जिन विचारोंके लिखने या प्रकट करनेमें घंटों लग जाते हैं, उनके उत्पन्न होनेमें कुछ ही मिनिट लगते हैं मेरे मित्र डाक्टर साहब अभी तक मूर्च्छित ही थे । अब मैंने उनकी आँखोंपर ठंडे जलके छींटे डाल कर उन्हें सचेत किया और उनसे उस दृश्यका वर्णन सुना जो उन्होंने अपनी मूर्च्छि-तावस्थामें अनुभव किया था । उन्होंने देखा था कि हज़ारों बालाओं, माताओं और विधवाओंकी एक पड़ी भारी फौज़ बड़े भारी वेगसे पुरुषोंकी Jain Education International ६३ ओर दौड़ी हुई जा रही है और भयंकर शब्द करती हुई उनपर टूटी पडती है । यहाँ उ दृश्यका पूरा वर्णन करना मैं उचित नहीं समझता । मुझे आशा नहीं कि पाठक उसे मेरे मस्तिष्क के विकारको छोड़कर और कुछ समझेंगे;- यद्यपि मैं उसे एक प्रकारकी भविष्यवाणी समझता हूँ। क्योंकि मुझे प्रकृतिका यह नियम और इतिहासका यह पाठ बिलकुल सच जान पड़ता है कि “जिस समय राजा बहुत ही स्वेच्छाचारी और अत्याचारी हो जाता है उस समय प्रजामें न जाने कहाँसे एक अकल्पित बल आ जाता है । वह बलवा मचा देती है और अपने कंधे परसे राजाकी अमर्यादित सत्ताके जूएँको तोड़-मरोड़ कर फेंक देती है । " मैंने कहा - "डाक्टर साहब, अब उस भयंकर दृश्यको भूल जाओ । संसार दुःखपूर्ण है । इन दुःखों को देखकर स्वयं दुखी होना कोई वीरताका काम नहीं है । बुद्धिशाली दृष्टा वह है जो दुःखोंसे जुदा रहकर उनका अवलोकन करता है और उनमेंसे नवीन ज्ञान और नवीन शक्ति प्राप्त करता हैं । तुम रुपये पैसे खर्च करके कल्पित नाटक और तमाशे देखा करते नाटक जो हम दोनोंने अभी देखे हैं क्या कम हो, पर सच कहो अपने समाज के ये दो सच्चे दर्शनीय और आकर्षक हैं ? चलो, अब मैं तुम्हें उक्त दोनों नाटकोंसे भी अधिक दर्शनीय एक और नाटक दिखलाता हूँ । देखो, उस ओर गणेशजीके बाहन श्रीमान् मूषक महाराज - अपने गहन शास्त्रोंका अध्ययन कर रहे हैं ! [ शेष आगे । ] * जो ** जैनहितैषी के इस नये शरीर के लिए शृङ्गार या मुखपृष्ठ मेरी सम्मतिसे तैयार करवाया गया है उसका भाव समझानेके लिए For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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