Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 74
________________ CHARYAMAMALAIMILBAUMBAIRLINE - जैनहितैषी संख्या कम होनेके कारणोंपर विचार करनेके हैं, केवल मनुष्योंकी ही संख्या कई अरब है; लिए एक कमेटी बना दी गई। ऐसी अवस्थामें एक सेठीजीका या भारतजैनइतना काम काज करनेके बाद यह सुसभ्य महामण्डलका जीना मरना हर्ष या खेदका विषय नाटक मण्डली अपना खेल समाप्त करके बिदा नहीं बन सकता; परन्तु जब सेठीजीको हो गई / नाटक कम्पनियोंको प्रजाके चरित्रके बचानेका प्रयत्न करना हमारे लिए -- इष्ट ' सुधारने बिगड़नेकी चिन्ता बहुत ही कम होती है-कर्तव्य है-हमारे जीवनमरणका प्रश्न है है, लोगोंका मनोरंजन करनेपर ही वे अधिक तब इसके लिए एक भारतजैनमहामण्डल तो ध्यान रखती हैं / इसी तरह मण्डलके एक्टरोंने क्या सारा जैन समाज ही यदि ख्वार हो जाय भी इक बातकी परवा किये बिना कि समाज- हमें परवा न करना चाहिए और अपने प्रयत्नमें हितकी और समाजकी सहानुभूतिकी रक्षा होती लगे रहना चाहिए / मनुष्योंका-और विशेषतः है या नहीं, अपना छह घंटेका खेल समाप्त उन लोगोंका जो जड़वादी नहीं हैं-लक्ष्य कर डाला ! हमारे यहाँ इस तरहके अल्पसंतोषी बिन्दु लाभ-अलाभ या सुख दुःख नहीं किन्तु लोगोंकी कमी नहीं है जो कहते हैं कि चाहे उच्चाशय, कर्तव्य, प्रगति और आत्मविजय होना जो हुआ पर भारतजैनमहामण्डल ' का चाहिए / अभीतक हम आशा कर रहे थे कि अधिवेशन तो निबनताके साथ हो गया ! यद्यपि हमारी जातिके पुराने ख़यालोंके अगुओंमें परन्त वास्तवमें देखा जाय तो हमारा ध्येय आत्म-तेज नहीं है और उनसे कुछ होने जाने अधिवेशन करना ही नहीं है, काम करना है, वाला नहीं है, परन्तु शिक्षितजनोंका ध्यान और वह नहीं हुआ। सेठीजीके प्रस्तावको रद- तो समाजकी ओर जा रहा है, अतः वे इस करके मण्डलने अपनी अकर्मण्यताको और भी कमीको पूरा कर देंगे, किन्तु आज हमारी वह असह्य बना डाला ! हमारी समझमें हमें किसी आशा निराशामें परिणत हो गई-हमारा स्वप्नव्यक्तिके मरने जीनेकी परवा कम करना चाहिए, भंग हो गया-हम आँखें मलते हुए उठकर देखते परन्तु सिद्धान्त या प्रिन्सिपलकी रक्षाके लिए हैं कि- .. खूब दृढ रहना चाहिए / विश्वमें अनन्त जीव पूर्वकी महत्ता सचमुच ही अदृश्य हो गई है / जैनहितैषी। Dunists न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी। बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी हितैषी // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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