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जैनहितैषी
सभापति महाशयका ' व्याख्यान, कहा समय दुम दबाकर भाग जाना, यह क्या साहसी जाता है कि बड़ी स्वतंत्रताके साथ हुआ और सिंहोंका काम है ? शिक्षितोंमें इस प्रकारकी उसे लोगोंने बहुत पसन्द किया । इस व्याख्या- भीरुता और दुर्बलता देखकर बड़ी ही निराशा नमें साधुसम्प्रदायकी निन्दा करते हुए आपने हाता है। कहा कि “जैनसाधु मेरे जूते उठानेके भी मण्डलका आठवाँ प्रस्ताव यह था-"जैनसायोग्य नहीं हैं।" यद्यपि पीछेसे कह दिया हित्य और तत्त्वज्ञानका प्रकाश किया जाय और गया था कि 'कितने ही साधु ऐसे हैं,' तथापि इस विषयमें कुमार देवेन्द्रप्रसादजीने जो प्रशंसयह कथन अज्ञानियोंको शान्त रखनेकी कला- नीय उद्योग किया है उसके लिए उन्हें धन्यवाद के सिवाय और कुछ नहीं था । श्वेताम्बर और दिया जाय ।" सब्जेक्ट कमेटीमें जब उक्त प्रस्थानकवासी सम्प्रदायमें साधुओंकी संख्या बहुत स्ताव उपस्थित हुआ, तब अनावश्यक बतलाकर . है और उनका समाज पर बड़ा प्रभाव है। इसका विरोध किया गया और वह रद कर दिया ऐसे प्रभावशाली और पूज्य समझे जानवाले गया । इसके बाद दो तीन बार फिर भी इसकी समूहके विषयमें इतना खुला प्रहार करना बत- चर्चा उठाई गई, परन्तु फल कुछ न हुआ-कमेटीके लाता है कि सभापति महाशय बड़े स्पष्टवक्ता सामने ही प्रस्तावोंकी सूचीमेंसे उक्त प्रस्ताव अ
और साहसी हैं । व्याख्यान सुनकर हमारा भी लग कर दिया गया। इतना होने पर भी दूसरे यही ख़याल हुआ था; परन्तु रातकी सब्जैक्ट- दिन जो छपी हुई प्रस्तावमालिका वितरण की कमेटीमें जब सेठीजीके प्रस्तावकी ऊपर लिखे गई, उसमें उक्त प्रस्ताव मौजूद था और उसके अनुसार हत्या की गई, तब हमारा हृदय कह अनुमोदकोंमें श्रीयुक्त बाडीलालजीका नाम छपा उठा कि क्या इसीको साहस कहते हैं ? जो स्वयं हुआ था! बाडीलालजीने सभामें उपस्थित हो बैरिस्टर हैं, जानते हैं कि सेठीजीके सम्बन्धमें कर कहा-"मुझे बड़े अफसोसके साथ कहना काननके अनुसार प्रार्थना करनेका प्रस्ताव करना पडता है कि यह प्रस्ताव कानूनके विरुद्ध पेश कोई अपराध नहीं है, जो इस प्रस्तावके कर- किया गया है और मझसे पूछे विना ही इसके नेका वचन पहलेहीसे दे चुके थे, सारी सब्जैक्ट अनुमोदकोंमें मेरा नाम दे दिया गया है। यद्यपि कमेटीने जिनसे इस प्रस्तावके लिए आग्रहपूर्वक साहित्यसम्बधी प्रत्येक प्रस्तावका मैं हृदयसे अप्रार्थना की थी, वे केवल इस तुच्छ खयालसे-कि नुमोदक हूँ ; परन्तु कानूनके विरुद्ध कार्य करना कहीं सरकार मुझसे अप्रसन्न न हो जाय-डर गये! मुझे पसन्द नहीं है । शिक्षितोंकी सभामें ये अशिउन्होंने वचन भंग किया, कानून तोड़ा, सब्जै- क्षितोंके समान कार्रवाइयाँ होते देखकर मुझे क्टकमेटीकी इच्छानुसार प्रस्ताव पेश करनेका बड़ा ही दुःख होता है।" हमारी समझमें यह नहीं कर्तव्य भुला दिया और सारे जैनोंकी आशा- आया कि जब साहित्यप्रकाशकोंको उत्तेजन को धूलमें मिला दिया, क्या यह साहसका चिह्न देनेका ही प्रस्ताव करना था तब उसमें केवल है ? बेचारे निरीह निष्कर्मा साधुओंपर तो सोटे- एक ही संस्थाकी या एक ही व्यक्तिकी प्रशंसा की जगह तलवार खींचना और सरकारके क्यों की गई ? क्या देशभरमें और कोई भी सामने उचित प्रार्थना-नम्र निवेदन-और वह संस्था या पुरुष साहित्यकी सेवा करनेवाला नहीं भी हज़ारों जैनोंके साथ मिलकर-करनेके है ? काशीकी यशोविजय ग्रन्थमाला, भाव
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