Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 59
________________ MAHARAANIMAITHAMARELATIONAMAHARARIALITARTER जैनोंकी वर्तमान दशा।। ५७ मनुष्यके हृदयपर उसका कुछ भी परिणाम न सकते हैं, रोजाको ज़रा भी नहीं। इसी तरह हुआ ! ओ परमार्थकी पोशाकमें छुपे हुए स्त्री भी भोज्य और प्रजारूप है, अतः उसके स्वार्थी कीड़े ! आत्मवंचकता छोड़ और लिए भोक्ता पुरुष ही कानून बनायगा; परन्तु अपने हृदयको चीरकर देख । कोई बाल- स्वयं पुरुष उन कानूनोंसे मुक्त रहेगा ! तेरा विधवा-जिसने अपने पतिका मुँह भी अच्छी हृदय स्पष्टतः यही कहेगा; परन्तु इसका अर्थ तरह नहीं देखा है-मजबूर होकर फिरसे ब्याह केवल यही है कि तेरी समझमें स्त्री जड़ है करना चाहती है और इस तरह अपने निर्वाह चैतन्य नहीं ! तो अब तू ही बतला दे कि और रक्षणका एक विश्वासपात्र साधन खोज अधर्मी कौन है ? स्त्रीको हृदयसे जड़ समझलेना चाहती है, पर हे मनुष्य ! तू उसमें रुका- नेवाला तू, या अपने जीवन निर्वाहके लिएवटें डालनेको तैयार होता है और इसमें अध- अपनी रक्षाके लिए-फिरसे ब्याह करनेके लिए र्मका ' हौआ ' दिखलाकर डराता है । क्या लाचार होनेवाली बालविधवा ? जो बालिका तूने कभी इसका गहरा और वास्तविक 'पत्नी' बननेका अर्थ ही नहीं समझती थी, कारण जाननेका प्रयत्न किया है ? तूने उसे ज़बर्दस्ती पत्नी बनाकर-ऐसे पथिककी स्रीको चेतन नहीं, पर जड़ भोज्य पदार्थ जो कि शीघ्र ही स्मशानके नजदीक पहुँचनेमान रक्खा है और इस कारण तेरा भोगा वाला है-विधवापनेकी खाईमें धकेलनेवाला हुआ पदार्थ फिरसे किसी दूसरेके भोगनेमें आ तू या तेरे ही समान व्यक्तियोंसे बने हुए जायगा, इस ख़यालसे तुझे ईर्षा उत्पन्न समाजको छोड़कर और कौन है ? क्या होती है । परन्तु इस ईर्षाके भावको छुपा- कोई बालिका अपने पितामहकी उमरके बूढ़े कर तू धर्मके सुन्दर, मनोमोहक बहानेको खूसटकी पत्नी बननेकी इच्छा कर सकती है ? आगे खड़ा कर देता है और कहता है,-"एक क्या कभी तूने या तेरे समाजने उसकी इच्छा जीवनमें दो पति! महान अधर्म! महान् अनर्थ ! जाननेकी चिन्ता की है ? क्या ऐसी घटनायें घोर कलियुग !" परन्तु रे ईर्षा के खिलौने ! यह आये दिन नहीं हुआ करती हैं जिनमें कन्याके तो कह कि अपनी स्त्रीके मरनेके पीछे दूसरी, साफ़ इन्कार करनेपर भी वह ज़बर्दस्ती किसी तीसरी, चौथी और पाँचवीं स्त्री ब्याहते समय बूढ़े या अयोग्यके साथ व्याह दी जाती है ? तेरा वह धर्म कहाँ भाग जाता है ? यह अधर्मका और ऐसी दशामें उसका वैधव्य उस बेचारीका शैतान उस समय तुझसे तोबा तोबा क्यों दोष है या समाजका ! तू समाजके दोषपर नहीं कराता ? तू अपने स्वार्थी हृदयसे तो उस बेचारीको-बिना मारे मरी हुई गायकोपूछ । वह कहेगा कि तू भोक्ता है भोज्य नहीं, दण्ड देनेके लिए तैयार होता है, क्या यही राजा है प्रजा नहीं, चेतन है जड़ नहीं । और तेरा पुरुषत्व है, मनुष्यत्व है और धर्मकी व्याख्या भोज्यका अस्तित्व भोक्ताके लिए है, प्रजाका है? धर्मका 'ओ-ना-मा' न जानने पर भी धर्मकी अस्तित्व राजाके लिए है, जडका अस्तित्व शेखी मारनेवाले ओ ईर्षाके पुतले ! पहले यह चेतनके लिए है। वह यह भी कहेगा कि प्रजाको तो बतला कि तेरा धर्म ब्याहकी भी आज्ञा नहीं किन्तु राजाको कानून बनानेका अधि- कहाँ देता है ? जब जैनधर्म, आत्माके कार है और वे कानून प्रजाको ही बाधक हो उद्धारके लिए जितनी प्रवृत्तियाँ की जाती Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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