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जैनसिद्धान्तभास्कर । CiftififtififtiiiiifinitiuinttrintTTER
और कोई लक्ष्य भी हो तब न ! पाठक कछ लाभ इसका अर्थ यह है कि " वह बढ़ाभारी मुउठावें या नहीं, इससे उन्हें मतलब नहीं। निसंघ, अविरुद्ध आचरणवाले चार भेदोंके हमारे पाठक कहेंगे कि लेखका हिन्दी भावान- · कारण ऐसा शोभित हुआ जैसे भगवान् जिनेन्द्र वाद भी तो साथहीमें दे दिया है, फिर और अपने परस्पर समानरूप चार मुखोंके कारण परिचय देनेकी क्या आवश्यकता थी ? उत्तर शोभित होते हैं।" कविका भाव यह है कि यद्यपि यह है कि वह भावानुवाद आपके पूर्वपरिचत दर्शन करनेवालोंको जिन भगवान्के चारों ओकाव्यतीर्थ पं० हरनाथ द्विवेदीका किया हुआ है। रसे बिलकुल एक सरीखे चार मुख दिखलाई तब यह आशा कैसे की जा सकती है कि पड़ते हैं; परन्तु वास्तवमें उनका एक ही मुख उसको बेचारी हिन्दीके पाठक समझ लेंगे ! होता है। उसी तरह वह मुनियोंका संघ यद्यपि __ अनुवादके विषयमें अधिक कहनेकी अवश्यकता देव, नन्दि, सिंह, सेन इन चार भेदोंमें बँट नहीं है। पाठक हरिशंपुराण और पद्मपुराणकी गया, परन्तु वास्तवमें उसका चारित्रकी भिन्नप्रशस्तिके अनुवादमें काव्यतीर्थजीके अनुवाद- तासे रहित एक ही रूप था। कौशलका नमूना देख चुके हैं। ठीक वैसा ही इसका अर्थ काव्यतीर्थ महाशय इस प्रकार ऊँटपटाँग, असम्बद्ध, अनर्थक और मूर्खतापूर्ण करते हैं--" इसके बाद श्रीमान् योगी जिअनुवाद इस लेखका भी हुआ है । यह तो नेन्द्र भगवान् अविरुद्ध वृत्तिवाले चार संघोंको किसी तरह समझमें भी नहीं आता कि कवि पाकर परस्पर समान चार मुखके ऐसे उन्हें किसका वर्णन कर रहा है । जहाँ जहाँ मूलमें समझकर शोभने लगे।" मालूम नहीं अकलं. यस्य, तस्य, यः, सः आदि सर्वनाम आये हैं कके समयमें ये योगी जिनेन्द्र भगवान् कहाँसे अनुवादमें उनको ‘जिसके, तिसके, जो, सो' और कैसे आ गये ! सेठ पद्मराजजीको यह आदि पर्यायवाची शब्द धर दिये हैं; परन्तु ऐतिहासिक तत्त्व अवश्य मालूम होगा । यह स्पष्ट करनेकी कृपा कहीं भी नहीं की है कि श्रीमान श्रतमानकी प्रशंसामें कवि कहता है:'वह' या 'वे' कौन हैं जिनका वर्णन हो रहा है। कोई कोई पद्य बहुत ही साधारण हैं; परन्तु
का त्वं कामिनि कथ्यता
श्रुतमुनेः कीर्तिः किमागम्यते । उनके अनुवादमें भी गोलमाल किया गया है । इस
ब्रह्मन्मप्रियसन्निभो विषयमें अधिक न कहकर अब हम अनुवादके दो
मुनिबुधः संमृग्यते सर्वतः ॥ चार नमूने देकर इस विषयकी आलोचनाको नेन्द्रः किं स च गोत्रभित्समाप्त करेंगे।
धनपतिः किं नास्त्यसौ किन्नरः। - १९ वें श्लोकमें अकलंकदेवका स्वर्गगमन शेषः कुत्र गतः स च द्विरशनो वर्णन करके और यह कह करके कि उनके अ
___ रुद्रः पशूनां पतिः ॥५२॥ न्वयमें देवनन्दि आदि संघ हुए कवि कहता है:- अर्थात्-"ब्रह्माजीने किसी स्त्रीको आई हुई देखकर स योगिसंघश्चतुरप्रभेदाना
पूछा-हे कामिनि, कह तू कौन है ? (उत्तर) साध भूयानविरुद्धवृत्तान् ।
मैं श्रुतमुनिकी कीर्ति हूँ। ( प्रश्न ) यहाँ क्यों बभावयं श्रीभगवानजिनेन्द्र
आई है ? ( उत्तर ) हे ब्रह्मन्, मैं अपने प्यारेके श्चतुर्मुखानीव मिथस्समानि ॥ सदृश विद्वानको सब और ढूँढती फिरती हूँ।
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