Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 50
________________ ૩૮ जैनहितैषी - राजपूतोंके समान नहीं था जिन्होंने अपनी कन्यायें बादशाहको या उसके सरदारोंको ब्याहकर अपना सौभाग्य समझा था । वह सच्चा राजपूत था । उसे अपने पूर्वजोंका अभिमान था और इस कारण वह अपने कुलकी मर्यादाको बनाये रखना अपना कर्त्तव्य समझता था । उसे राजपूतोंका मुसलमानोंके साथ विवाहबन्धनमें बँधना बहुत ही खटकता था । वह इस कार्य से बहुत घृणा करता था। अपने धर्मकी रक्षाके आगे शाही ताज और तख्तसे सत्कार पानेके लोभको वह तुच्छ समझता था । पर्वतसिंह जैसा वीर था वैसा ही समझदार भी था । इस समय अपनी रक्षाका प्रबन्ध ठीक न होनेके कारण उसने बादशाहसे कहला भेजा कि मैं अपनी लड़कीको ब्याह देनेके लिए तैयार हूँ ।. बादशाहने सुना कि पर्वतसिंह अहोरके पहाड़ी किले में चला गया है और वहाँ गुप्तरूप - से तैयारियाँ कर रहा है। उसके स्वजनसम्बन्धी और मैमार राजपूत आ आकर उससे मिल रहे हैं । अहमदशाहने दश हज़ार सेना तैयार की और निश्चय किया कि या तो इस सेनासे राजपूतों का सर्वनाश कर देंगे या इसे ही बारात बनाकर नई दुलहिनको ले आयँगे । निदान अहमदशाह बड़ी शान के साथ अपनी वीर बारातको लिये हुए अहोरके किलेके पास जा पहुँचा । वह एक बहुमूल्य साजोंसे सजे हुए हाथी पर बैठा था । शाहने ज्योंही किले के भीतर जानेके लिए अपने हाथीको बढ़ाया त्योंही एक बाण किलेसे सनसनाता हुआ आया और उसके ताजकी कलगीमें आ लगा । बाण थोथा था और उसके सिरे पर एक कागजका पुरजा बँधा हुआ था जिसमें Jain Education International यह लिखा था - " जिस धनुर्धरके हस्तकौशल ने इस बाणको तुम्हारे ताज तक पहुँचाया है वह तुम्हारे उस कुत्सित मस्तकको बाक बातमें छेद सकता है जिसमें लालाको लेने की लालसा उत्पन्न हुई है । अब भी सचेत हो जाओ । " इसी समय किसीने वह बहुमूल्य पोशाक - जो बादशाह के यहाँसे नई दुलहिन के लिए आई थी - चिथड़े चिथड़े करके बादशाह हाथीके आगे फेंक दी । गरज यह कि तुमुल युद्धकी सूचना हो गई । मुसलमान सेनाने समझा कि अब शीघ्र ही किलेसे आग बरसेगी और हमारी रक्षा होना कठिन है; परन्तु यह देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ कि वहाँ बहुत देर तक खड़े रहनेपर भी कहीं से एक भी वाण उन तक न आया और न कोई बन्दूककी आवाज़ नई अहोरके किलेमें तीन हज़ार राजपूत थे । बादशाहके खजानेसे जो कुछ धन रत्न आदि सौगातकी तौर पर पर्वतसिंहको मिला था, वह सब उसने किले की दुरुस्ती, रसदके इन्तज़ाम और अच्छे अच्छे हथियारोंके खरीदने में खर्च किया था । उसकी प्रतिज्ञा थी कि चाहे जो हो, अपनी लालांको विधर्मीके हाथ न जाने दूँगा और अन्त तक इस किलेकी सहायतासे अपनी रक्षा करूँगा । ( ३ ) मुसलमान लोग नसैनियाँ लगा-लगाकर किलेकी दीवारोंपर चढ़ने लगे । चढ़ते समय जब उनके काममें कोई रुकावट न डाली गई, तब तो उनका हौसला बढ़ गया; परन्तु थोड़ी ही देरमें उन्हें विश्वास हो गया कि किलेके भीतर प्रवेश करमा ज़रा टेढ़ी खीर है । राजपूत लोग ऊपर ताक लगाये हुए खड़े थे; उन्होंने बड़े बड़े लट्ठोंसे सारी नसैनियोंको खिसका दिया For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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