Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 52
________________ जैनहितैषीiumini तक राजपूत इतने बढ़ गये कि बादशाहके प्राण उन्हें सफलता न होती थी। जब तलवारोंने सख गये । उसे घड़ी घड़ी पर यही भास होता काम न दिया, तब एक वाण छोड़ा गया और था कि अब मरा या पकड़ा गया। उसके सैनिक उसने पर्वतसिंहके विशाल शरीरको धराशायी मिमकर हाथीके सामने हो गये और एक एक कर दिया ! पिताके गिरते ही पुत्रने मुकुट, करके मारे गये ! राजपूत प्राणपणसे आगे बढ़ . छत्र आदि राजचिह्न धारण कर लिये । यह रहे थे, इसलिए वे थोड़े ही समयमें बादशाहके हाथीके सामने आ पहुँचे । उनके वाणों देख बरलीखाँ नामका मुसलमान सरदार और बरछोंसे हाथीकी पीठ चलनी बन उसके मुकाबिलेपर आ पहुँचा । बरलीखाँके चुकी थी और वह पलायोन्मुख हो रहा था एक कठिन प्रहारसे रामसिंहकी तलवार ट कि पर्वतसिंहके साहसी पुत्र रामसिंहने नीचे गई, तो भी वह लड़ता रहा और उसी टूटी पैठकर हाथीके तंगकी रस्सी अपनी कटारसे तलवारसे लड़ते हुए वरलीखाँके तीन साथियोंको काट दी ! रस्सीके कटते ही हौदा ओंधा हो मारकर उसने वीरगति प्राप्त की। गया और बादशाह जमीन सूंघने लगा । इसी ____ मुट्ठीभर राजपूत आखिर कहाँतक लड़ सकते समय रामसिंह अपने दो तीन साथियों सहित थे ? उन सबने अपनी मर्यादाकी रक्षाके लिए उस पर झपटा; परंतु उसका वार खाली गया; एक एक करके प्राण दे दिये। युद्धका अन्त क्योंकि अहमदशाह तब तक संभल गया था- हो गया। आकाशमें उड़ती हुई धूलि चिरउसने उस बारको अपनी ढालपर झेल लिया। निद्रामें सोते हुए सात आठ हजार शॉपर पर उसकी रक्षाके लिए मुसलमान सिपाही भा बैठकर शान्त हई ! . चारों ओरसे सिमट आये थे। लड़ाई धीरे धीरे भयंकररूप धारण करने लगी । राजपूतोंकी निर्दय बादशाहने बड़ी उत्सुकतासे अहोरके संख्या कम होने लगी और शत्रुओंकी बढ़ने किले के भीतर प्रवेश किया; परन्तु उसने वहाँ लगी । राजपूत चारों ओरसे घेर लिये गये और क्या देखा ! निर्जन स्मशान ! शवदाहकी दुर्गउन पर प्रबल हमले होने लगे । राजपूतोंको न्धिसे वायुमण्डल व्याप्त हो रहा था और अब जीतकी आशा न रही। जितने शत्र मारे- चितामें अब भी अग्नि दहक रही थी। राजपूजा सकें उतने मार लो; बस अब यही उनका तकि जौहरव्रतका वर्णन उसने पहले कईवार उपस्थित कर्तव्य हो गया। उनका एक एक सुना था, इसलिए उसे यह समझनेमें विलम्ब न दल छूटता था और शत्रुसेनामें घुसता हुआ लगा कि यहाँ भी उसी व्रतका उद्यापन किया मारता काटता हुआ अन्तमें शान्त हो जाता था। गया है। इससे उसे बड़ी निराशा हुई । उसका ...वीर पर्वतसिंहके मस्तकपर अब भी राजचिह्न पाषाणहृदय भी इस नारीहत्यासे द्रवित हो शोभा दे रहे थे और वह अब भी अपने गया । कुछ समयके लिए उसे ऐसा मालूम साथियोंको घमासान युद्धके लिए उत्तेजित हुआ कि मैंने यह कार्य अच्छा नहीं किया। . करता हुआ शत्रुओंकी संख्या कम कर रहा वह मन-ही-मन कहता थाथा । मुसलमान उसे मारने या जीता पकड़ “न खुदा ही मिला न विसाले सनम्, , लेने के लिए जीजानसे चेष्टा कर रहे थे; परन्तु .. न इधरके हुए न उधरके हुए।" , Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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