Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 56
________________ aaummmmmmmmmmm जैनहितैषी हमारे लिए आनन्दस्थान है बल्कि हमें तो मार्ग नहीं है ! जिस चीज़से सुख होता है. 'अल्प में उलटी तुच्छता मालूम होती है-उससे उसे ( उस चीज़के प्रति घृणा होनेके कारण एक प्रकारकी अरुचि उत्पन्न होती है और–” नहीं किन्तु चीज़ चाहे जितनी सुखदायक और " और मैं भी आज तुम्हें अरुचि उत्पन्न सुन्दर हो तो भी एक विचारकके लिए उसकी करानेका निश्चय करके आया हूँ।" डाक्टरने दासता स्वीकार कर लेना अपमानजनक है, बात काटकर कहा और मेरे हाथसे पुस्तकको केवल इसी ख़यालसे) छोड़ देना-यह जय-यह छीनकर टेबिलपर फेंक दिया । “मैं आज तुम्हें आनन्द यह बलप्राप्ति ही तो प्रार्थनीय है।" तुम्हारे थोथे और हवाई ख़यालोंमेंसे खींचकर बाहर बुद्धिकी यह सम्मति पाकर मैंने तत्काल ही घसीट ले जानेका विचार करके आया हूँ। निश्चय कर लिया और कपड़े पहनकर कहा, . आज मुझे दिखला देना है कि तमारी खयाली 'चलो चलें।" दुनियाकी अपेक्षा हमारी यह जीती-जागती साँची इसके बाद हम दोनों घरसे चल दिये। दुनिया कितनी अधिक आनन्दजनक है । मेरा मैदानमें पहुँचकर पहले हमने 'टग आफ वार' विचार है कि आज कुछ खेलतमाशे दिखला- ( रस्सा खींचनेका तमाशा ) देखा; परन्तु उससे कर तुम्हारा जी बहला लाऊँ । खुली हुई हवामें मेरा ज़रा भी मनोरंजन न हुआ । वहाँसे फिरनेसे और जीती जागती दुनियाके मनो- हम सीनेमेटोग्राफमें गये जिसमें हमने जलते रंजक दृश्य देखनेसे तुम्हारे मस्तकको विश्राम हुए महल देखे, उनमें एक वीरपुरुषको देखा । मिलेगा और शरीरको भी लाभ होगा । चलो, जिसने अपनी जानपर खेलकर एक पूरे देर मत करो; कपड़े पहन कर मेरे साथ हो कुटुम्बको बचा लिया, पुराने खंडहर देखे जाओ। यदि तुम इंकार करोगे तो मुझे बहुत और एक विनोदपूर्ण फिल्ममें एक भेड़के पीछे, दुःख होगा।" चलती हुई भेड़ोंकी सेनाको कुएमें पड़ते देखा । मैंने सोचा, एक ओर तो मुझे तत्त्वज्ञानके यहाँसे उठकर हम · महाभारत ' नाटक देखवाचन-मननके इस आनन्दको गँवानका दुःख नेके लिए गये। उस समय द्रौपदीके शरीर भोगना पड़ेगा और दूसरी ओर, अपने प्रेमी परसे वस्त्र खींचा जा रहा था । बलवान् पाँचों मित्रकी बात नहीं मानता हूँ तो उसे दुःख पाण्डव, ऋषिगण, और राजसभाके सारे सभ्य.. होगा, इन दोमेंसे मुझे कौनसा मार्ग ग्रहण चित्र लिखेसे हो रहे थे । उनमेंसे कोई भी मनुष्य : करना चाहिए ! बुद्धिने सम्मति दी कि “ तुझे उस पतिव्रताकी रक्षा करनेके लिए तैयार न: दुःख होता है इस कारण अथवा दूसरेको जो होता था । यह देखकर मेरे मित्रको उन सबसे दुःख होता है उसकी सहानुभूतिसे, किसी कार्यको बड़ी घृणा हुई । श्रीकृष्णकी कृपाका—किसी. करनेके लिए तैयार होना, ये दोनों ही निर्बलतायें अलौकिक शक्तिका-कर्मके अदृश्य हाथोंका हैं । तेरा आशय केवल बल प्राप्ति करनेका होना सहारा पाकर यद्यपि वह बिलकुल वस्त्रहीन.. चाहिए, सुख दुःखका नहीं । तब, इस समय तुझे न हो सकी, अन्यायी दुःशासनको इस कार्यमें. पुस्तक पढ़नेमें जो सुख हो रहा है उस सुखको सफलता प्राप्त न हुई तथापि उसे दासी बनानेमें भी यदि तू जीत ले-उसकी भी दासता छोड़नेके तो वह सफलमनोरथ हो गया । यह सब होने लिए कमर कसले, तो क्या यह बलप्राप्तिका पर भी जब उन हज़ारों पुरुषोंमेंसे कोई भी.. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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