Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 54
________________ AH M INAINITIAOM जैनहितैषी H inition शाहकी ओर देखती हुई व्यंग्यपूर्वक बोली- रसे पसीना निकला, त्योंही वस्त्रोंमें लगे हुए. " मालिक मेरे, इस उपस्थित आनन्दको भोग तीब्र विषने अपना असर डालना शुरू कर लीजिए, नहीं तो यह घड़ी जाती है। सांसा- दिया । वह विकल होकर इधर उधर दौड़ने रिक सुखोंकी सर्वोच्च सीमा पर पहुंचना ही लगा और पोशाकको फाडफाड़कर फेंकनेका मानों ईश्वरीय दण्डका पात्र होना है। हम लोग यत्न करने लगा। वह चिल्लाना चाहता था; जो इस समय सब तरहसे सुखी और स्वस्थ हैं. परन्तु उसके कण्ठमेंसे आवाज़ न निकलती आश्चर्य नहीं जो एक दिन भरमें-नहीं-नहीं थी। अन्तमें उसका शरीर शिथिल हो गया घड़ी भरमें ही इस संसारसे उठ जायें ।" और जब तक लोगोंने उसकी इस दशाका अहमदशाह नई दुलहिनकी प्राप्तिके आनन्दमें कारण मालूम किया, तब तक वह इस संसारसे ऐसा मस्त हो रहा था कि उसने लालाके इन ही बिदा हो गया ! व्यंग्यपूर्ण वाक्योंको ज़रा भी न समझा । वह - लालाने अहमदशाहके निर्जीव शरीरको एक मुस्कराता हुआ बोला-" ऐसा क्यों ?" नीचे सरोवरके किनारे खड़े हुए सर्वसाधा .. बार घृणाकी दृष्टि से देखा, फिर राजमहलके रणजन और पास ही बरामदेमें खड़े हुए मु सबसे ऊँचे शिखरपर चढ़कर उसने अपने साहब लोग इस अभिनव जोडेकी छवि निहार पिताके प्यारे अहोर किलेकी ओर देखा, और रहे थे। उनकी रत्नजटित-पोशाकपर पड़ती इसके बाद उसने माता-पिता-भाई-बन्धुओंकी हुई सूर्यकी किरणें एक अपूर्व शोभाको जन्म मृत्युका ध्यान किया । अन्तमें उसके मुखमण्डदे रही थीं । सबके देखते देखते बाद- लपर एक विकट हास्यकी छाया दीख पड़ी शाहके चेहरे पर घबड़ाहट नजर आने और उसने वहींसे सरोवरमें कूदकर प्राण लगी । धूपके कारण ज्योंही उसके शरी- दे दिये ! , सुखशान्तिवर्द्धक नियम । (लेखक, बाबू दयाचन्दजी गोयलीय बी. ए.) १. हमको प्रति दिन आपत्तियाँ सहने और पग ८. अपनेसे बड़ोंसे आदरके साथ पेश आओ और पग पर निराश होनेके लिए तैयार रहना चाहिए। छोटोंसे प्रेमके साथ व्यवहार करो। २.संसारमें कोई भी मनष्य पूर्ण नहीं है. अतएव ९. नौकरोंके साथ धीरे और प्रेमके साथ बोलो। बहुत अधिककी लालसा मत करो। १० किसीके अवगुण एकान्तमें देखो. लोगोंके . ३. प्रत्येक मनुष्यके स्वभावको देखो कि जिससे सामने उसकी प्रशंसा ही करो। तुम उनको अच्छी तरह समझ सको। ११. प्रशंसा जब हो सके, तब करो; परन्तु निन्दा ४. यदि किसीपर दुःख या आपत्ति आजाय तो उसी समय करो जब उसकी अत्यन्त आवश्यकता हो। उसके साथ सहानुभूति प्रगट करो, और यदि किसीकी १२. मुलायम जबाबसे प्रायः क्रोध जातारहता है। उन्नति या बढ़ती होती हो, तो उसे देखकर हर्षित होओ। . १३. यदि वास्तवमें किसीने अपराध किया हो ५. यदि तुम्हें क्रोध आरहा हो, तो मौन धारण और तुम उसपर क्रोध करते हो, तो उस समय याद करो। क्रोधावस्थामें बोलना ठीक नहीं है। करो कि तुमने भी कभी कोई अपराध किया होगा। ६. दूसरोंको प्रसन्न करनेके लिए शक्ति भर १४. हर्षमें पहले दूसरोका ख्याल रक्सो । उयोग करो। १५. दूसरोंकी प्रतिष्ठाका ख्याल रक्खो। ५. जीवनको निःसार मत समझो, किंतु हर्ष और १६ जब हो सके दूसरों के विषयमें अच्छे विचार भानन्द्रकी दृष्टिसे देखो। रक्खो । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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