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जैनहितैषी -
नहीं सकता और इस कारण जिनसेनसे उनका की प्रशंसाके गीत गाये हैं । गीत इस लिए कि साक्षात् होना असंभव है । इस लेख भरमें प्रशंसा और संस्कृत शब्दोंकी भरमार के सिवाय विशेष तथ्यकी बात कोई नहीं है । शिल्पकलाका जनक भारतवर्ष ही है, वेदादि ग्रन्थोंमें मूर्तिपूजाका स्पष्ट उल्लेख है, आदि बातोंके लिए प्रमाण देनेकी ज़रूरत जो नहीं दिये गये ।
परिशिष्ट शिलालेख ।
५ योगिराज पण्डिताचार्य चौदहवीं शताब्दिके बादके विद्वान् हैं । उनकी उस कथापर विश्वास नहीं किया जा सकता जिसमें वे का - लिदास और जिनसेनका साक्षात् हुआ बतलाते हैं । जिनसेन जैसे ऋषि विद्वान यह निरी मिथ्या बात कभी नहीं कह सकते कि मेघदूतकाव्य पुराने काव्यमेंसे चुराया गया है । जैनधर्मकी प्रभावना इस तरह के छलसे कदापि नहीं हो सकती और न ऐसी प्रभावनाको पण्डिताचार्य और सम्पादकाचार्य पद्मराजजीको छोड़कर और कोई ठीक ही मान सकता है। पार्श्वाभ्युदयके अन्तके दो श्लोकोंमें जिनसेन स्वामी स्वयं यह बात स्वीकार करते हैं कि इस पार्श्वकाव्यको मैं मुनिराज विनयसेनकी प्रेरणासे कालिदासके मेघदूतकाव्यको वेष्टित करके बनाया उन्होंने यह तो कहीं नहीं कहा कि मैंने कालि दासका गर्व गलित करने के लिए इसकी रचना की है ! अतः दोनोंके साक्षात्की कथा पण्डि - ताचार्यजीकी मनगढन्त कल्पना है और यह उसी प्रकारकी है जैसी कल्पनायें बल्लालकविने अपने भोजप्रबन्धमें कालिदाससे लेकर अपने समयतक के तमाम बड़े बड़े कवियोंको भोजकी सभामें उपस्थित करके की है ।
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यह एक शिलालेख है । इसका लेखक मंगराज नामका प्रसिद्ध कवि है जो शक संवत् १३५५ के लगभग हुआ I 'कर्नाटक कविचरित ' के लेखानुसार वह होयसल देशान्तगत कलहल्लि राज्यके स्वामी विजयेन्द्रका पुत्र था । कनड़ी में इसके बनाये हुए छह ग्रन्थ उपलब्ध हैं । उसके बनाये हुए इस लेखमें सब मिलाकर ७८ पद्य हैं जो बहुत ही सुन्दर शब्दालङ्कार अर्थालङ्कार दोनोंसे युक्त हैं । ' इन्स्क्रप्शन एट् श्रवणबेलगोल ' नामक पुस्तक पर से यह उद्धृत किया गया है । कविने इसे श्रुतकीर्ति, चारुकीर्ति, पाण्डितयति, और श्रुतमुनि इन चार प्रसिद्ध विद्वानों की यादगार कायम रखनेके लिए लिखा है । प्रारंभ के २१ श्लोकों में महावीर भगवान् से लेकर अकलङ्कसूरितकके मुख्य मुख्य आचार्योंका उल्लेख किया गया है। और इसके बाद अन्ततक के श्लोकों में पूर्वोक्त चार मुनियोंकी प्रशंसा और उनके समाधिमरणका उल्लेख है । अन्तिम श्रुतमुनिकी निषद्या या समाधिस्थलपर यह लेख संभवतः अब भी मौजूद है । यदि सिद्धान्तभास्कर के सम्पादक महाशय इस लेख के विषयमें इतना सा परिचय भी दे देते, तो भास्करके हिन्दीपाठक उनके बड़े ही कृतज्ञ होते । परन्तु वे ऐसा क्यों करने लगे ? भयंकर घटाटोप दिखलानेके सिवाय उनका
यह समकालीनता सम्बन्धी लेख भी अधूरा है जो चौथी किरणके निकल जानेपर भी पूरा नहीं किया गया है । जान पड़ता है सेठजी अभीतक समकालीनता के पूरे प्रमाण संग्रह नहीं कर सके हैं !
भारतवर्षीय प्राचीन शिल्पकला इस तीन पेजके अधूरे लेखमें- जो अभीतक पूरा नहीं किया गया है - भारतके प्राचीन शिल्प -
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