Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 18
________________ १८ जैनहितैषी - देनेसे, कि तुम्हें गवर्नमेंट ने अमुक पदवी प्रदान की, काम चल सकता था । इसी तरह काम तो चल सकता था अप्रतिष्ठित प्रतिमाओसे भी, पर सर्वसाधारण पर प्रतिमापूज - नका अधिक प्रभाव पड़े और जैनधर्मकी प्रभावना हो, इन सब बातोंके लिए प्रतिष्ठाका मार्ग चलाया गया । हमें भी इस कथनमें तथ्य जान पड़ता है और ऐसा होना असंभव भी नहीं। कारण जैनधर्म सरीखा वीतरागता - प्रिय धर्म इन बाह्य आडम्बरोंको पसन्द नहीं कर सकता । उसे प्रतिमापूजनसे जो वीत - रागता इष्ट है वह अप्रतिष्ठित प्रतिमासे भी प्राप्त हो सकती है। तब वह क्यों एक नया भार अपने सिर उठाने चला ! तब यह प्रश्न उठता है कि एक तो यह प्रथा बहुत पुरानी है और दूसरे यदि अप्रतिष्ठित प्रतिमाओंसे ही जैनधर्मकी प्रतिमापूजनकी मंशा सिद्ध हो सकती थी तो फिर आचार्योंने प्रतिष्ठापाठ वगैरह ग्रन्थोंको बनाया और क्यों श्रावकोंको प्रतिष्ठाके नेका उपदेश दिया ? क्यों कर यद्यपि इस प्रश्नका समाधान ऊपर कहे गये प्रतिमापूजनके प्रभावसम्बधी कथनसे बहुत कुछ होजाता है तो भी इस प्रश्न के उत्तर पर एक और रीति से हम विचार करते हैं । यह जो कहा गया कि प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा करना पुरानी प्रथा है, इस पर हमारा यह कहना है कि हो सकता है यह प्रथा पुरानी हो; परंतु यह मान लेनेके लिए हम Jain Education International बाध्य नहीं कि प्रतिष्ठाविधि सदासे चली आती हो । क्योंकि कई ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं। कि जिनसे अप्रतिष्ठित प्रतिमाका पूजा जाना भी सिद्ध होता है । हम इस बातको सप्रमाण सिद्ध नहीं कर सकते कि जैनधर्ममें प्रतिष्ठाविधिका ब सूत्रपात हुआ, पर यह बतला सकते हैं कि जैनधर्ममें एक ऐसा भी युग बीत गया है, जिसमें कि अप्रतिष्ठित प्रतिमायें भी पूजी मानी जाती थीं और इस विषयका उल्लेख हम स्वयं आगे चल कर करेंगे । दूसरे यह कहा गया कि ' तो आचार्यों ने प्रतिष्ठा ग्रन्थोंको क्यों रचा और क्यों प्रतिष्ठा - दिके करनेका उपदेश किया । ' इस पर हमारा कहना यह है कि हम यह नहीं कहते कि आचार्योंने प्रतिष्ठा वगैरहका उपदेश देकर या उस सम्बन्धके ग्रन्थोंको रचकर कोई बुरा काम किया हो । परन्तु हम जिस प्रतिष्ठापद्धतिकी चर्चा कर रहे हैं वह कितनी पुरानी है इस विषयका पता लगाना चाहते हैं । और इसी लिए हमें अधिक से अधिक पुराने जमानेके सम्बन्ध में विचार करना आवश्यक होगा । 1 इस विषयके निर्णय करनेके दो साधन हो सकते हैं - एक साहित्य और दूसरा इतिहास । साहित्यकी दृष्टिसे जब हम विचार करते हैं तो हमें यह निःसंकोच कह देना पड़ेगा कि इस प्रतिष्ठाके सम्बन्धका इस समय जितना साहित्य उपलब्ध है, वह सब इतना पुराना For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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