Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 19
________________ अप्रतिष्ठित प्रतिमा पूज्य है या नहीं ? नहीं जिससे हम विश्वास कर सकें कि प्रतिष्ठाविधि बहुत पुरानी है । इस समय आर्शाघर, नेमिर्चेन्द्र, अकलंक ( दूसरे ), इन्द्रनन्दि, एकॅसन्धि, आदि जितने विद्वानों और मुनियोंके प्रतिष्ठापाठ मिलते हैं वे सब विक्रमकी ग्यारहवीं, बारहवीं शताब्दि के बाद के हैं । हमें यह देखकर बड़ा विनोद होता है कि अब भी हमारे यहाँ विक्रमकी दूसरी तीसरी शताब्दिके बने ग्रन्थ जब मिलते हैं तब प्रतिष्ठां सरीखे एक आवश्यक विषयके ग्रन्थ उस समयंके बने क्यों प्राप्त नहीं ? इसका कोई कारण होना चाहिए । कुछ लोगों का कहना है कि पहले शास्त्रोंके लिपिबद्ध करनेकी प्रथा बहुत कम थी । इस लिए सब विषयोंके ग्रन्थ तब नहीं लिखे गये थे । यह ठीक है कि शास्त्रोंके लिखनेकी प्रथा पहले कम थी, पर यह प्रश्नका सन्तोषजनक उत्तर नहीं । कुन्द - कुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक, आदि आचार्योंके ग्रन्थ उपलब्ध हैं, पर प्रतिष्ठासम्बन्धके इतने पुराने ग्रन्थ भी उपलब्ध नहीं, तब इससे भी अधिक पुराने समयकी तो हम बात ही क्या कहें । हमारे । १आशाधरका समय विक्रमकी तेरहवीं शताब्दि है २ नेमिचन्द्र ( गोम्मटसारके कर्ता ) का समय विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दि है । ३ प्रतिष्ठापाठ शायद दूसरे अकलंकका है । अकलंक प्रतिष्ठापाठके प्रारंभमें नेमिचन्द्रके प्रतिष्ठापाठका उल्लेख है, अतएव ये दूसरे अकलंक ग्यारहवीं शताब्दि के भी पीछेके हैं । ४-५ इन्द्रनंदि और एकसंधिका समय विक्रमकी तेरहवीं शताब्दि है । - सम्पादक । Jain Education International १९ इस पर यह बाधा दी जा सकती है कि तब पुरानी प्रतिष्ठित प्रतिमायें क्यों देखी जाती हैं ? इसका उत्तर यह है कि विक्रमकी समकालीन या उनके सौ दोसौ वर्ष बादकी प्रतिष्ठित प्रतिमायें अबतक देखने में नहीं आई हैं और यदि किसी सज्जनने कहीं देखीं हों तो उन्हें उसका उल्लेख करना चाहिए। और कदाचित् कहीं हों भी, तो उससे यह सर्वथा सिद्ध नहीं हो सकता कि प्रतिष्ठा करना उस समयके लिए आज जैसा आवश्यक ही समझा जाता हो । क्योंकि अप्रतिष्ठित प्रतिमा पूजे जानेके भी कई प्रमाण और युक्तियाँ दी जा सकती हैं । इतिहास दृष्टि से विचार करने पर भी इस विषय में विशेष तथ्य नहीं निकलता । ऐसा कोई ऐतिहासिक प्रमाण अबतक प्रगट नहीं हुआ कि जिससे प्रतिष्ठा - विधि दो हजार वर्ष से पुरानी ठहराई जा सके । पर ऐसे प्रमाण कई मिलते हैं जो जैनधर्मको उक्त अवधिसे पुराना सिद्ध करते हैं । हमारे कहने का मतलब यह है कि प्रतिष्ठा विधि बहुत पुरानी नहीं । जैनधर्ममें एक समय अप्रतिष्ठित प्रतिमायें भी पूजी जाती थी । हमारा यह कथन उल्लिखित बातों से बहुत कुछ पुष्ट होता है । इसके सिवा अहम कुछ ऐसी युक्तियाँ भी पेश करते हैं जो हमारे कथनको और भी सुदृढ़ करती हैं । १ - कई स्थानों पर ऐसी प्रतिमायें अब भी मौजूद हैं, जिन पर प्रतिष्ठा वगैरहका For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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