Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 25
________________ आचार्य सिद्धसेन । ट उपाधियाँ दी जाती हैं वे यथार्थ हैं । जैसे प्रचण्ड तार्किक थे कवि भी वैसे ही उत्कृथे । इनका बनाया हुआ ' कल्याणमन्दिर - स्तोत्र' पढ़कर कौन सहृदय आनन्दित नहीं होता ? भक्तिरस से ओत-प्रोत भरे हुए उसके प्रत्येक काव्यसे किस अर्हद्भक्तका हृदय परमात्मा के परम-गुणोंमें लीन नहीं हो जाता कल्याणमन्दिर जैसी अनेक स्तुतियाँ इनकी बनाई हुई उपलब्ध हैं जिनमें अर्हद्देवकी अनेक प्रकारसे स्तवना की गई है । उपर्युक्त न्यायावतारको भी इन्हीं स्तुतियोंमें की एक स्तुति समझना चाहिए | ? " जगद्विश्रुत हेमचन्द्राचार्यने अपने सिद्ध - हेम-शब्दानुशासनमें उत्कृष्टता दिखाने के लिए 'अनुसिद्धसेनं कवयः ( तस्मादन्ये हीना इत्यर्थः ) का उदाहरण लिखकर सिद्धनको सर्वोत्कृष्ट कवि बतलाया है । और अपने ‘ अयोगव्यवच्छेदस्तवन' के प्रारंभ में सिद्धसेनसूरिकी स्तुतियोंकी प्रशंसा करके 'उनके सामने अपनी कृतिको 'अशिक्षितालापकला ' बतलाया है । इन प्रमाणों से यह भलीभाँति ज्ञात होता है कि सिद्धसेनदिवाकर प्रखर वादी भी थे और महाकवि भी थे । पुराणस्मृत सिद्धसेन मी वादी और कवि थे । परन्तु दिगंबर संप्रदायका साहित्य इस विषयमें बिलकुल चुप है कि वे कौन थे और कब हुए हैं । यह भी संभव नहीं कि ऐसे सामर्थ्यवान् महा. त्माको समाज विस्मृत कर दे । यदि सिद्ध ४ Jain Education International २५ सेन दिगंबर संप्रदाय में हुए होते और पुरागोल्लिखित विशेषण उनमें चरितार्थ होते, तो उनका कुछ न कुछ इतिहास दिगंबर साहित्यमेंसे अवश्य ही मिल आता । स्वामी कुंदकुंद, अकलंक, विद्यानंद आदि परमदिगंबरा - चार्योंके विषयमें, सत्य तथा कल्पित परंतु थोड़ा बहुत हाल मिल ही आता है । परंतु सिद्धसेन के विषयमें उक्त पुराणोंके सिवा, किसी विश्वसनीय ग्रंथ में, शायद नामोल्लेख भी न होगा । इससे यह अनुमान कि पुराणस्मृत सिद्धसेन, दिवाकरके अतिरिक्त और कोई नहीं; ठीक मालूम होता है । डा० सती - शचन्द्रका भी यही मर्त है । संभव है कि संप्रदायभेदके कारण बहुत से पाठक हमारे इस निर्णयसे सहमत न होंगे । कारण कि पुराणकार दिगंबर संप्रदायके धुरंधर आचार्य थे और दिवाकर श्वेतांबर संप्रदायके प्रभावक पुरुष थे । (यद्यपि उस समय दिगंबर - श्वेतांबरका भेद नहीं हुआ था; परंतु उनकी कृतियाँ और जीवनवार्तायें श्वेतांबर संप्रदाय में अधिक प्रचलित होनेके कारण वे श्वेतांबर माने गये हैं । ) दिगंबर संप्रदाय के आचार्योंद्वारा, श्वेतांबरीय आचार्यकी इस प्रकार प्रशंसा किया जाना, तो असंभवसा प्रतीत होता है; परंतु पूर्वयह आजकलकी परिस्थितिके अवलोकनसे १ - जिनसेन सूरिने अपने आदिपुराण में ( ई० संप्रदाय के थे - जिक्र किया है । ( जनहितैषी, सन् ७८३ में ) सिद्धसेन दिवाकरका - जो कि श्वेतांबर भा० ९ अं० ३ ) For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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