Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ SatuRATHIBAARIDATIOLTINAMAALIBAITLE जैनहितैषी १० हो। जो जीवात्मा इस व्रतको समझनेमें द्वारा अपने पिताके घरमें-स्वाध्यायमें-- भाग्यशाली हुआ होगा, वह तो बाइविल- जानेका मंत्र बताया है जिसे 'सामायिक व्रत' वर्णित उड़ाऊ ( अपव्ययी ) लड़केकी भाँति कहते हैं। यों ही कहेगा कि:-" मेरे पिताके बहुतसे यहाँ मझे स्पष्ट करके कहना चाहिए बंगले हैं; मैं वहाँ जाऊँगा, अब विशेष समय कि दरसे सामायिक एक सामान्य घर सा तक क्षुधाकी पीड़ा न सहूँगा।" उड़ाऊ दिखाई देता है, तो भी यदि यों कहा होनेसे-व्यर्थ कार्योंमें पैसा व्यय करनेसे - जिसे जाय कि उसमें सहस्रों बँगले समा रहे हैं अन्न भी मिलना कठिन हो गया था, उस तो अत्युक्ति नहीं होगी, न्यूनोक्ति भले ही लडकेको अन्तमें जिस भाँति बापके घरकी हो जाय । सामायिकमें जब सारी तर्कनाओंकी आवश्यकता हुई और वहीं उसने बंगले' र वहा उसन 'बगल' त्याग कर कायोत्सर्ग किया जाता है, उस देखे; उस ही भाँतिसे जो मनुष्य अपने समय ऐसे आनन्दभवन दिखाई देते हैं शरीररूपी हथियारका, तथा समय, बुद्धि बुद्ध जिनका वर्णन करना लेखनी या जिह्वाकी और धन आदिका दुरुपयोग करता है उसे शक्तिसे परे है। दिखावेके हेतु, अंधश्रद्धाभी अन्तमें 'शक्तिहीन' 'साधनहीन' बन अपने पिताके गृहकी ओर-परमेश्वरके स्मरण के लिए या अंगीकृत नियम पालनेके हेतु जो सामायिक करते हैं मेरी समझमें वे इस की ओर-'आत्मभावनाकी ओर' फिरनेकी " छोटेसे घरमें छिपे हुए सहस्रों सुन्दर बंगले आवश्यकता पड़ती है। किन्तु यह आवश्यकता बहुत देरीसे होती है, इस कारण कदापि न देख सकेंगे। जिन्होंने अपने मन सार्थक नहीं होती है, क्योंकि पितृगृह या , - वचन और कायाकी शक्तिको व्यर्थ न उड़ा आत्मचिन्तवन तक जा पहुँचनेकी अब उसमें १ देकर उसे अपने कोषमें संचित रक्खा होगा शक्ति ही नहीं रहती है । इधर उधरकी उन्ह उन्हें सामायिक सचमुच ही आनन्दका सागर दौड़ धूपमें व्यर्थ ही अपनी शक्तिके नाश जान पड़ेगा। कर देनेसे अब वह दूरवर्ती 'बापके घर' प्रथम सोपान परसे छलाँग मारकर या 'स्वस्वरूपमें'-जिसमें सहस्रों महल और अन्तिम सोपान पर पहुँच जानेकी इच्छा आनन्दागार बने हुए हैं-किस भाँतिसे पहुँच रखनेवाले लोग बड़ी भारी भूल करते हैं। सकता है ? उदाहरणार्थ किसी ऐसे मनुष्यको लो, जिसने इसी हेतु महान्गुरु श्रीमहावीरने प्रथ- निरन्तर विषयसेवनमें रत रहकर अपना म ही शक्तिका दुरुपयोग न करनेके लिए शरीर निःसत्व बना लिया है, जिसने प्रत्येकका 'अनर्थदण्डविरति' नामी महामंत्र सिखाया बुरा चिन्तवन और तन्दुल मच्छकी भाँति है । उसके पश्चात् उन्होंने संचित शक्तिके अहर्निशि कुतर्क करते रहनेसे अपने मनको Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74