Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 02 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granthratna Karyalay View full book textPage 6
________________ ६६ हैं कि उपर्युक्त नौ पदार्थों के नाम और वे शब्द भी, जो इनके अनेक विभागोंके सूचक हैं, सब संस्कृतशब्द-संग्रहसे लिए गये हैं। २-इसके अतिरिक्त सब तीर्थकर, जिनसे जैनियोंके विख्यात सिद्धांतोंका प्रचार हुआ है, आर्य-क्षत्रिय थे । यह बात सर्वमान्य है कि आर्य-क्षत्रियोंके बोलने और विचार करनेकी भाषा संस्कृत थी। जैसे कि वेदानुयायियोंके वेद हैं इसी प्रकार जैनियोंके प्राचीन संस्कृत ग्रंथ हैं जो जैनमतके सिद्धांतोसे विभूषित हैं और वर्तमानकालमें भी दक्षिण कर्नाटकमें मूडबद्रीके मंदिरोंके शास्त्रभंडारों और कुछ अन्य स्थानोंमें संग्रहीत हैं । ये प्राचीन लेख विशेषकर भोज-पत्रों पर संस्कृत और प्राकृत भाषाओंमें हस्तलिखित हैं। प्रसिद्ध मुनिवर उमास्वातिविरचित तत्त्वार्थ-शास्त्र, जो कि जैनधर्मके तत्त्वोंसे परिपूर्ण है, संस्कृतका एक स्मारक ग्रंथ है; यह ग्रंथ महात्मा वेदव्यास कृत उत्तरमीमांसाके समान है । ईस्वी सन्की द्वितीय शताब्दिके आरंभमें प्रसिद्ध समंतभद्रस्वामीने विख्यात गंधहस्ति महाभाष्य रचा। जो कि पूर्वोक्त ग्रंथकी टीका है। तत्पश्चात् पूर्वोक्त दोनों ग्रंथोंपर औरोंने भी संस्कृतकी कई टीकायें रची । समंतभद्रस्वामीने उत्तरमें पाटलीपुत्रनगरसे दक्षिणी भारतवर्ष में भ्रमण किया । यही महात्मा पहले पहल दक्षिणमें दिगम्बरसंप्रदायके जैनियोंके निवास करनेमें सहायक और वृद्धिकारक होने में अग्रगामी हुए थे। इस संबंधमें यह बात याद रखने योग्य है कि श्वेताम्बरसंप्रदायके जैनी आजकल भी. दक्षिण भारतवर्षमें बहुत ही कम हैं। ३-ऐसा मालूम होता है कि बहुत प्राचीन कालसे जैनियोंमें भी उपनयन ( यज्ञोपवीत-धारण ) और गायत्रीका उपदेश प्रचलित है। आजकल भी जैनमंदिरोंमें पूजन करनेमें और उन संस्कारोंमें जो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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