Book Title: Jain Hindu Ek Samajik Drushtikona
Author(s): Ratanchand Mehta
Publisher: Kamal Pocket Books Delhi

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Page 15
________________ मानी जाती है । रजोगुण और सत्य की कमी से कर्म का आव.पण तीन हो जाता है । परन्तु सत्त्व के अंश की विद्यमानता से कर्मलिप्सा होते हुए भी प्रत्येक क्रिया का समन्वय भगवान के साथ हो जाता है, जिससे कर्म-कर्म न रह कर यश हो जाता है। बस यही त्रता का स्वरूप है । जव रंजोगुण से सत्वगुण विल्कुल निकल जाता है और तमोगुण भी कुछ-कुछ पा जाता है, तव द्वापर का समय कहलाता है। रजोगुण भी जब विशेषतः समाप्त होकर तमोगुण ही जव मानव-हृदय को पूर्णतया आक्रान्त कर लेता है तब कलियुग का शासन हो जाता है। चारों ओर विरोध की भावना का साम्राज्य बन जाता है । शुद्ध सत्त्व समता विज्ञाना, कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना । सत्त्व बहुत रज कछु रति करमा, सब विधि नेता कर धरमा । सत्त्व स्वरूप रज वहु कछु तामस द्वापर धरम हरण भय मानस । तामस बहुत रजोगुण धीरा, कति प्रभाव विरोध चहुं ओरा । कहने का अभिप्राय यह है कि मनुष्यों की मनः स्थिति तथा जगत की परिस्थिति के अनुसार ही युग का स्वरूप बनता है और युग स्वरूप के अनुसार ही निराकार साकार बन कर तत्कालीन गतिविधि में परिवर्तन कर समधीन बनाता है । अतः अवतारों के स्वरूपों में विभिन्नता और उनके द्वारा प्रकट किये गये समयानुकूल सिद्धान्तों के अनेकता भेदभावना की. · उत्पत्ति के लिए नहीं, अपितु विकास-क्रम से अनन्यत्व एवं अभेद

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