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३ संघसूत्र है शीघ्र से सकल कर्म कलंक घोता, ना दोपधाम वह तो गुण धाम होता। हो एकमेक जिससे दृग बोध वृत्त, जानो सभी सतत "संघ" उसे प्रशस्त ॥२५॥ मम्यक्त्व बोध व्रत को गण नित्य मानो, है गच्छ मोक्ष पथ पे चलना मुजानो । मन् संघ है गुण जहाँ उभरे हुए हैं, शुद्धात्म ही समय है, गुरु गा रहे हैं !!॥२६।। पापो यहाँ प्रभय है भवभोत ! भाई, धोखा नही, न छल, शीतलता सुहाई। माता पिता सब समा नहि भेद नाता, लो सघ की शरण, सत्य अभेद भाता ॥२७॥ सम्यक्त्व में चरित में प्रति प्रौढ़ होते, विज्ञानरूप मर में निज को डुबोते । जो संघ में रह म्वजीवन को बिताते, वे धन्य हैं सफल जीवन को बनाते ॥२८॥ जो भक्ति भाव रखता गुरु में नहीं है, लज्जा न नेह भय भी गुरु से नहीं है । सम्मान गौरव कभी यदि ना करेगा, मो व्यर्थ में गुरुकुली बन क्या करेगा ? ॥२९॥
भाई अलिप्त सहसा विधि नीर मे है, उत्फुल्ल भी जिनप सूर्य प्रकाश से है । सागार भव्य प्रलि प्रा गुण गा रहे हैं, गाते जहाँ प्रगुण केसर पो रहे हैं ॥३०॥
समणमुत्त