Book Title: Jain Gita
Author(s): Vidyasagar Acharya
Publisher: Ratanchand Bhayji Damoha

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Page 163
________________ निन्दा तथापि नित जो पर के पदों को, शंसा अतीव करते अपने मतों की । पांडित्य, पूजनयशार्थ दिखा रहे हैं, संसार को सघन पौर बना रहे हैं ॥७३४॥ संसार में विविध कर्म-प्रणालियां हैं, ये जीव भी विविध प्रो उपलब्धियां हैं। भाई अतः मत विवाद करो किसी से, सामि से अनुज मे पर मे प्ररी से ॥७३५॥ है भव्यजीव-मति गम्य जिनेन्द्र-वाणी, पीयूष - पूरित पुनीत - प्रशांति - खानी । सापेक्ष - पूर्ण - नय - प्रालय पूर्ण साता, प्रासूर्य जीवित रहे जयवन्त माता ॥७३६।। १४३

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