Book Title: Jain Gita
Author(s): Vidyasagar Acharya
Publisher: Ratanchand Bhayji Damoha

View full book text
Previous | Next

Page 168
________________ ४४. वीर-स्तवन पावन - झील. न्यारे, सम्यक्त्व-बोध-व्रत मेरे रहें शरण संयम शील सारे । लूं वीर की शरण भी मम प्राण प्यारे, नौका समान भव पार मुझे उतारें ॥७५०॥ निर्ग्रन्थ हैं अभय धीर अनन्त ज्ञानी, श्रात्मस्थ हैं श्रमल हैं कर आयु हानि । मूलोत्तरादिगुण धारक विद्वान 'वीर' जग में जग विश्वदर्शी, चित्त हर्षी ।। ७५१ ॥ सर्वज्ञ हैं श्रनियताचरणावलम्बी, पाया भवाम्बुनिधि का तट स्वावलम्बी । हैं अग्नि से निशि नशा स्वपरप्रकाशी, हैं "वीर" घोर रवितेज अनंतदर्शी ॥७५२ ।। ऐरावता वर गजों हरि ज्यों मृगों में, गंगा नदों गरुड़ श्रेष्ठ विहंगमों में । निर्वाणवादि मनुजों मुनि साधुनों में, त्यों 'ज्ञातृपुत्र' वर 'वीर' मुमुक्षुत्रों में ।। ७५३ ।। ज्यों श्रेष्ठ सत्य वचनों वच कर्ण- प्रीय, दानों रहा 'अभय दान' समयनीय | सत्तपों में, है ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य तप उत्तम त्यों ज्ञातृपुत्र श्रमणेग धरातलों में ।।७५४।। हैं जन्मते कब कहां जग जीव सारे, जानो जगद्गुरु ! तुम्हीं जगदीश ! प्यारे । धाता पितामह चराचर मोदकारी, हे ! लोकबन्धु भगवन् ! जय हो तुम्हारी ।।७५५ ।। [ १४e ]

Loading...

Page Navigation
1 ... 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175