Book Title: Jain Gita
Author(s): Vidyasagar Acharya
Publisher: Ratanchand Bhayji Damoha

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Page 162
________________ सच्चे मभी नय निजी विषयों स्थलों में, झूठे परम्पर लड़ें निशि वासरों में । ये सत्य वे सब असत्य कभी अमानी, ऐसा विभाजित उन्हें करते न ज्ञानी ॥७२८।। ना वे मिले, यदि मिले तुम हो मिलाते, सच्चे कभी कुनय प बन है न पाते । ना वस्तु के गमक हैं उनमें न बोधि, सर्वस्व नष्ट करते रिपु मे बिरोधी ॥७२९। सारे विरुद्ध नय भी बन जाय अच्छे । स्याद्वाद की शरण ले कहलाय सच्चे ! पाती प्रजा बल प्रजापति छत्र में ज्यों, दोषी प्रदोष बनते मुनि संघ में ज्यों ॥७३०॥ होते अनन्त गुण द्रव्यन में सयाने, द्रव्यांश को प्रबुध पूरण द्रव्य माने । छु अंग अंग गज के प्रति अंग को ही, ज्यों अंध वे गज कहें, अयि भव्य मोही !॥७३१॥ सर्वांगपूर्ण गज को दृग से जनाता, तो सत्य ज्ञान गज का उसका कहाता। सम्पूर्ण द्रव्य लखता सब ही नयों से, है सत्य ज्ञान उसका स्तुत साधुओं से ॥७३२।। संसार में अमित द्रव्य प्रकथ्य भाते, श्री वीर देव कहते मित कथ्य पाते । लो कथ्य का कथित भाग अनन्तवा है, जो शास्त्र रूप वह भी बिखरा हुआ है ।।७३३।। [ १४२ ]

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