Book Title: Jain Gita
Author(s): Vidyasagar Acharya
Publisher: Ratanchand Bhayji Damoha

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Page 159
________________ ४०. स्यावाद सप्त भंगी सूत्र हो 'मान' का विषय या नय का भले हो, दोनों परस्पर प्रपेक्ष लिये हुए हो । सापेक्ष है विषय प्रो तब ही कहाता, हो अन्यथा कि इससे निरपेक्ष भाता । ७१४॥ एकान्त का नियति का करता निषेध, है सिद्ध शाश्वत निपाततया "प्रवेद" । स्यात् शब्द है वह जिनागम में कहाता, सापेक्ष सिद्ध करता सबको मुहाता ||७१५।। भाई प्रमाण-नय-दुर्नय-भेद वाले, हैं सप्त भंग बनते, क्रमवार न्यारे । 'स्यात्' की अपेक्ष रखने परमाण प्यारे ! गोभे नितान्त नय से नयभंग मारे ।। मापेक्ष दुर्नय नहीं, निरपेक्ष होते, एकान्त पक्ष रखते दुःख को मजोते ।।१६।। म्यादस्ति, नास्ति उभयावकतव्य चौथा, भाई त्रिधा प्रवकतव्य तथव होता । यों सप्त भंग लसने परमाग के है, ऐसा कहें जिनप प्रालय ज्ञान के है ।।७१७॥ क्षेत्रादिरूप इन म्वीय चतुष्टयों में, मस्ति स्वरूप मब द्रव्य युगों-युगों मे । क्षेत्रादि रूप परकीय चतुष्टयों में, नास्ति स्वरूप प्रतिपादित साधुओं से ॥७१८॥ १३६ ]

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