Book Title: Jain Gita
Author(s): Vidyasagar Acharya
Publisher: Ratanchand Bhayji Damoha

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Page 156
________________ जो भूत कार्य इस सांप्रत से जुड़ाना, है भूत नैगम वही गुरु का बताना । वर्षों पुरा शिवगये युगवीर प्यारे, मानें नथापि हम 'प्राज उषा' पधारे ।।७०१।। प्रारम्भ कार्य भर को जन पूछने से, 'पूरा हुआ' कि कहना सहसा मजे से । प्रो वर्तमान नय नेगम नाम पाता, ज्यों पाक के समय ही बस भात भाता ।।७०२। होगा, अभी नहिं हुआ फिर भी वताना, लो ! कार्य पूरण हुआ रट यों लगाना । भावी सुनेगम यही समझो सुजाना, जैसा उगा रवि न किन्तु उगा बताना ॥७०३।। कोई विरोध बिन आपस में प्रबुद्ध ! सत् रूप से सकल को गहता 'विशुद्ध' । जात्येक भेद गहता उनमें 'अशुद्ध', यों है द्विधा सुनय संग्रह पूर्ण सिद्ध ॥७०४॥ संप्राप्त संग्रहतया द्विविधा पदार्थजो है प्रभेद करता उसका यथार्थ । मो व्यावहार नय भी द्विविधा, स्ववेदी, 'शुद्धार्थ भेदक' प्रशुद्ध पदार्थ भेदी ॥७०५।। जो द्रव्य में ध्रुव नहीं पल आयुवाली, पर्याय हो नियत में बिजली निराली । जाने उसे कि ऋजु सूत्र सुसूक्ष्म भाता, होता यथा क्षणिक शब्द सुनो सुहाता ॥७०६॥ [ १३६ ]

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