Book Title: Jain Gita
Author(s): Vidyasagar Acharya
Publisher: Ratanchand Bhayji Damoha

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Page 150
________________ पर्याय नैक विध यद्यपि हो तथापि, भाई विभाजित उन्हें न करो कदापि । वे क्षीर नीर जब आपस में मिलेंगे, प्रो 'नीर' 'क्षीर' 'यह' यों फिर क्या कहेंगे ?॥६७२।। नि:गंक हो समय में तज मान सारा, स्यावाद का विनय से मुनि ले सहारा । भाषा द्विधाऽनुभय सत्य सदैव बोले, निप्पक्ष भाव धर शास्त्र रहस्य खोले ॥६७३॥ [ १३० ]

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