Book Title: Jain Gita
Author(s): Vidyasagar Acharya
Publisher: Ratanchand Bhayji Damoha

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Page 148
________________ स्यादवाद, चतुर्थ सण्ड ३७. अनेकान्त सूत्र जो विश्व के विविध कार्य हमें दिखाते, भाई बिना ही जिसके चल वे न पाते । नैकान्तवाद वह है जगदेक स्वामी, वन्दं उमे विनय मे शिव पन्थगामी ॥६६०।। प्राधार द्रव्य गुण का इक द्रव्य का ही, प्राधार ले गुण लसे शिव राह राही । पर्याय द्रव्य गुण पाश्रित हैं कहाते, ये बीर के वचन ना जड़ को सुहाते ।।६६१।। पर्याय के बिन कहीं नहि द्रव्य पाता, तो द्रव्य के बिन न पर्यय भी मुहाता । उत्पात ध्रौव्य व्यय लक्षण द्रव्य का है, यों जान, लाभ झट लूं निज द्रव्य का मैं ॥६६२॥ उत्पाद भी न व्यय के बिन दीख पाता । उत्पाद के बिन कहीं व्यय भी न भाता, उत्पाद और व्यय ना बिन ध्रौव्य के हो, विश्वास ईदृश न किन्तु प्रभव्य के हो ॥६६३॥ उत्पाद ध्रौव्य व्यय हो इन पर्ययों में, हो द्रव्य में नहिं तथा उसके गुणों में । पर्याय हैं नियत द्रव्यमयी, तभी हैं, वे द्रव्य ही कह रहें गुरू यों सभी हैं ।।६६४।। है एक ही समय में त्रय भाव ढोता, उत्पाद ध्रौव्य व्यय धारक द्रव्य होता । तीनों प्रतः नियत द्रव्य यथार्थ में हैं, योगी कहें रत स्वकीय पदार्थ में हैं ॥६६॥ [ १२८ ]

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